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________________ उस नयपक्षातिक्रान्त वस्तु की प्राप्ति के उपायस्वरूप निश्चय-व्यवहारनय को कहा गया है, वहाँ नयों की उपयोगिता बताते हुए वे लिखते हैं - "यह पदार्थ अर्थात् आत्मा, जब निश्चयनय से आलिंगित (सम्बद्ध) होता है, तब निश्चयात्मक वस्तु है और जब व्यवहारनय से आलिंगित होता है, तब व्यवहारात्मक वस्तु है; इसलिए नयपक्षातीत आत्मपदार्थ की प्राप्ति के उपाय, मुख्य-गौणरूप से निश्चय-व्यवहारनय ही हैं - ऐसा भावार्थ है। यद्यपि आत्मा, स्वभाव से नयपक्षातीत है, तथापि वह नयों के बिना नयपक्षातीत नहीं हो सकता है, क्योंकि अनादि कर्म के वश यह जीव असत्कल्पना वाला है। 'नयतीति नयः' अर्थात् जो ले जाता है, पहुँचाता है अथवा प्राप्त कराता है, उसे नय कहते हैं। वह व्यवहार-निश्चय के भेद से दो प्रकार का है। उपनय से उपजनित व्यवहारनय होता है। जो प्रमाण-नयनिक्षेपात्मक भेद व उपचार के द्वारा वस्तु का व्यवहार करता है, वह व्यवहारनय है।" यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि नय की परिभाषा बताने के उपरान्त, नय के भेदों का क्रम निश्चय और व्यवहार - ऐसा न लेते हुए व्यवहार और निश्चय को बताया गया है तथा उनका लक्षण बताते हुए व्यवहार को उपनय से उपजनित और निश्चय को उपनय से रहित बताया है। एकं और विशेषता यह है कि व्यवहारनय के अन्तर्गत ही प्रमाण-नय-निक्षेप एवं उसके भेदों का अन्तर्भाव किया है, अतः विचार करें कि प्रमाण के भेद, नय हैं; नयों के भेद, निश्चय और व्यवहार हैं अथवा व्यवहार के भेद, प्रमाण-नय निक्षेप हैं। स्वयं आचार्यदेव के ही शब्दों में इस प्रकार कहा गया है - 1. श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ 20 नय-रहस्य
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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