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________________ सन् १९८६ में मैंने मुमुक्षु समाज के वरिष्ठ आदरणीय विद्वान् श्री लालचन्दभाई मोदी, राजकोट के अनुरोध पर श्रुतभवनदीपक नयचक्र का अनुवादन-सम्पादन-प्रकाशन किया था। उसमें नयों के सम्बन्ध में अतिविशिष्ट विषय प्रस्तुत किया गया है। वहाँ प्रारम्भ में ही निश्चयशुद्धिकथन नामक प्रथम अध्याय में नयपक्षातीत आत्मा की सिद्धि करते हुए लिखा है - "सभी जीव, स्व-स्वभाव से नयपक्षातीत हैं, क्योंकि सभी जीव, सिद्धस्वभाव के समान स्वपर्यवसित स्वभाव वाले हैं।'' ___ "शंका - जीव का स्वपर्यवसित स्वभाव कैसा है? समाधान - सहज परिणामिक ज्ञायकस्वभाव, क्षायोपशमिकज्ञान की निवृत्ति और क्षायिकज्ञान की प्रवृत्ति; इन दोनों में असाधारण है, क्योंकि वे दोनों स्वभाव, कारणान्तरों के द्वारा उत्पन्न होकर प्रगट होते हैं। क्षायोपशमिकज्ञान अनादि होने पर भी सीमित एवं सनिधनरूप होने से निवृत्त (निवर्तमान) हो जाता है, लेकिन सहज पारिणामिक ज्ञायकस्वभाव सदा अनिवृत्त ही रहता है। इसी प्रकार क्षायिकज्ञान, सादि होने पर भी निरवधि एवं अनिधनरूप होने से सदा प्रवृत्त (प्रवृत्तमान) रहता है, लेकिन सहज पारिणामिक ज्ञायकस्वभाव वाला जीव, सदा पूर्ववत् ही अप्रवृत्त बना रहता है। इसी प्रकार शेष औपशमिक एवं औदयिक भावों से असम्बद्ध (अनालीढ़) होने से सहज पारिणामिक ज्ञायकस्वभाव अनादि-अनिधन, स्व-स्वभावरूप, सम्पूर्ण अकारणक, स्वसंवेद्य तथा स्वानुभूति द्वारा प्रकाशमान रहता है - ऐसा ही जीव का स्वपर्यवसित (अपने पर ही निर्भर) स्वभाव है; इसी कारण वह नयपक्षातीत है।' इस प्रकार नयपक्षातिक्रान्त स्वरूप का विवेचन करने के उपरान्त 1. श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ 17 2. वही, पृष्ठ 17-18 नय-रहस्य
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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