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आइये! आध्यात्मिक ग्रन्थाधिराज समयसार परमागम से इन नयचक्रों के सम्बन्ध के बारे में कुछ विस्तार से जानने का प्रयास करते हैं -
श्रुतभवनदीपक नयचक्र के प्रारम्भ में तो आचार्य देवसेन ने मंगलाचरण करने के तुरन्त बाद 'अर्थप्ररूपणाय गाथात्रयमाचष्टे - ऐसा कहकर, समयसार की ११वी, १२वीं और १४३वीं गाथाएँ प्रस्तुत की हैं। यह इस बात का द्योतक है कि आचार्यदेव के हृदय में इन गाथाओं व समयसार का और आचार्य कुन्दकुन्द का कितना विशेष स्थान था; जिससे अभिभूत होकर ही उन्होंने प्रारम्भ में इन गाथाओं को लिखा है। लगता है - मानो इन गाथाओं एवं समयसार के मर्म को जानने के लिए ही आचार्य महाराज ने 'श्रुतभवन-दीपक नयचक्र' की रचना की हो।
इतना ही नहीं, इन गाथाओं को लिखने के तुरन्त बाद, ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हुए वे लिखते हैं कि आसां भावार्थो विचार्यते अर्थात् अब, इन गाथाओं के भावार्थ का विचार करते हैं। लगता है कि इसके बाद इन गाथाओं का विचार करते हुए ही आचार्यदेव ने पूरे ग्रन्थ की रचना की है। ___ इसी प्रकार आचार्य देवसेन के परवर्ती आचार्य श्रीमद् माइल्ल धवल ने 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' की रचना की है, वे भी सर्वप्रथम अपने ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हुए लिखते हैं -
"श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकृतशास्त्रात् सारार्थं परिगृह्य स्वपरोपकाराय द्रव्यस्वभावप्रकाशकं नयचक्रं ......।
अर्थात् श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत शास्त्र से सारभूत अर्थ को ग्रहण करके, अपने और दूसरों के उपकार हेतु द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र को बनाता हूँ।"3. 1. श्रुतभवनदीपक नयचक्र, नागपुर प्रकाशन 1986, पृष्ठ 13 2. वही, पृष्ठ 17 3. द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा 1 की उत्थानिका नय-रहस्य
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