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प्रस्तावना एवं ववहारणओ, पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण। णिच्छयणयासिदा पुण, मुणिणो पावंति णिव्वाणं।।
अर्थात् इसप्रकार व्यवहारनय को निश्चयनय के द्वारा निषिद्ध जानो, क्योंकि निश्चयनय के आश्रित मुनिराज ही निर्वाण को पाते हैं।'
वास्तव में समग्र जिनागम ही नयों की भाषा में निबद्ध है; इसलिए इन नयों को समझना अनिवार्य है, यही जिनागम का स्याद्वाद नामक महासिद्धान्त है। नयवाद, अपेक्षावाद, सप्तभंगीवाद, अनेकान्तवाद आदि इसी महा सिद्धान्त के पर्यायवाची नाम हैं।
यदि जिनशासन की परम्परा को विगत हजारों वर्ष के कालखण्ड में देखा जाए तो आज तक जितने भी नयचक्र लिखे गये हैं, वे सभी समयसार जैसे अध्यात्म ग्रन्थों के अनुसन्धान में ही लिखे गये हैं, चाहे द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र हो या श्रुतभवनदीपक नयचक्र, सर्वत्र इस भाव के सूचक वक्तव्य मिल जाएँगे कि ये सभी नयचक्र, समयसार के अनुशीलन में ही लिखे गये हों। इनमें श्रुतभवनदीपक नयचक्र तो अपनी विशेष आध्यात्मिकता बिखेर रहा है।
यद्यपि इस ग्रन्थ के रचयिता भी सम्भवत: वही आचार्य देवसेन हैं, जो वृहन्नयचक्र, आलापपद्धति आदि के रचनाकार हैं। इन सभी में नयों के सम्बन्ध में ही विषय-वस्तु है, लेकिन सभी की शैलीगत विशेषताएँ अलग-अलग हैं। इसका क्या कारण है ? - यह ज्ञात नहीं है। हो सकता है, इसका कोई अन्य कारण हो; यह भी सम्भव है, उक्त तीनों के रचनाकार अलग-अलग देवसेन हों, लेकिन इस सम्बन्ध में मैं कुछ भी आधिकारिक रूप से कहने में असमर्थ हूँ। 1. समयसार, गाथा 272
नय-रहस्य
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