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________________ २९. वस्तुतः पर्याय तो वस्तु के प्रवाह-क्रम का सूक्ष्म अंश है, अत: द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावस्वरूप वस्तु में काल के एक समयवर्ती अंश को ही 'पर्याय' शब्द से कहा जाता है। समुद्र की लहरों के समान कालप्रवाह में नवीन पर्यायरूप अंश उत्पन्न होता है तथा उसके पूर्ववर्ती अंश विलीन होता है - यही पर्यायों का उत्पाद-व्यय है। कालांश तो कालरूप है और कर्मोपाधियाँ भाववाची हैं; अतः काल को भाव से निरपेक्ष देखना कर्मोपाधिनिरपेक्ष अनित्य-शुद्धपर्यायार्थिकनय है तथा काल को भावों से मिला कर देखना, कर्मोपाधि-सापेक्ष अनित्यअशुद्धपर्यायार्थिकनय है। ३०. कर्मोपाधिनिरपेक्ष अनित्य-शुद्धपर्यायार्थिकनय से कर्मोपाधियों को गौण करके मात्र पर्यायस्वभाव को देखा जाए तो हमें भी अपनी पर्यायें, अर्हन्त भगवान जैसी चिद्विवर्तन की ग्रन्थियाँ दिखने लगेंगी।अर्हन्त भगवान औरहमारी पर्यायों में समानता, इन बिन्दुओं के आधार पर समझी जा सकती है - १. भगवान के केवलज्ञान के समान हमारा मति-श्रुतज्ञान भी रागादि विकारों से रहित स्वभाव वाला है। २. केवलज्ञान के समान हमारा वर्तमान ज्ञान भी स्व-परप्रकाशक स्वभाव वाला है। ३. द्रव्य-गुण की शुद्धता का निर्णय करने वाली हमारी ज्ञानपर्याय में भी उसी शुद्धता का प्रवाह प्रारम्भ हो जाता है, जो अर्हन्त भगवान में पूर्णरूप से विद्यमान है। __इस प्रकार नय-रहस्य के माध्यम से आत्मा का रहस्य जान कर, हम नयपक्षातीत नयातीत पक्षातीत विकल्पातीत पक्षातिक्रान्त आत्मानुभूति का प्रयास करें - इस पवित्र भावना के साथ विराम लेते हैं। - डॉ. राकेशकुमार जैन शास्त्री, नागपुर 2. वही, पृष्ठ 275 1. नय-रहस्य, वही, पृष्ठ 272 नय-रहस्य
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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