SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसा अखण्ड द्रव्य, दृष्टि का विषय है। २४. पर्याय को पृथक् करके लक्ष्य में न लेते हुए, उसे अन्तर्मुख करके, द्रव्य के साथ एकाकार करना अर्थात् द्रव्य-पर्याय के भेद का भी विकल्प तोड़ कर, एकतारूप निर्विकल्प अनुभव करना, यही द्रव्यपर्याय की सन्धि है, यही दोनों नयों की सफलता है।2 . २५. द्रव्य और पर्याय, दोनों को यथावत् जान कर, द्रव्य-स्वभाव का आश्रय लेना - यही प्रमाणज्ञान के फलस्वरूप प्रगट होने वाला, सम्यक् एकान्त है और यही श्रेयस्कर है। २६. कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय में कर्मोपाधि से आशय मुख्यरूप से मोह-राग-द्वेषादि औदयिक भावों से है। इस अपेक्षा विचार किया जाए तो इस नय का विषय औदयिक भावों से भिन्न अथवा क्षायिक आदि निर्मल भावों से अभिन्न ठहरता है, परन्तु दृष्टि के विषय की मुख्यता से विचार किया जाए तो औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और क्षायिक - इन चारों भावों को कर्मोपाधि कहा गया है।' २७. जो परमभाव है, वह कर्मोपाधि, उत्पाद-व्यय और भेदकल्पना से भिन्न ही है, परन्तु वे उसमें हैं या नहीं ? - ऐसे विकल्पों से भी अथवा द्रव्य-स्वभाव के अन्य विशेषणों सम्बन्धी विकल्पों से आत्मानुभूति नहीं होती, इसलिए वे हैं' या 'नहीं' - ऐसे विकल्पों से पार शुद्ध चैतन्यघन को परमभाव कह कर, उसे परमभावग्राही द्रव्यार्थिकनय का विषय कहा है। नय का भेद होने पर भी इसे पक्षातिक्रान्त भी कहा जा सकता है। २८. चाहे निश्चय-व्यवहारनयों का प्रकरण हो या द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयों का प्रकरण, प्रयोजन तो द्रव्य-पर्यायात्मक स्वज्ञेय को जान कर, परम उपादेयभूत शुद्धात्मभूत का अवलम्बन करके, सादिअनन्त शाश्वत सिद्धदशा प्रगट करने का ही है। 1. नय-रहस्य, पृष्ठ 226 2. वही, पृष्ठ 230 3. वही, पृष्ठ 231 4. वही, पृष्ठ 240 5. वही, पृष्ठ 257 6. वही, पृष्ठ 258 नय-रहस्य 14
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy