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१९. वास्तव में देखा जाए तो पर-वस्तुओं से आत्मा का सम्बन्ध बताने वाले कथन, पारमार्थिक सत्य न होने से निषेध्य ही हैं। चाहे उन्हें असद्भूत-व्यवहार कह कर निषेध किया जाए या नयाभास कह कर, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। इस सम्बन्ध को असद्भूत कहने का अर्थ ही यह है कि इसे वास्तविक न माना जाए। ..
२०. आगम का प्रतिपाद्य सन्मात्र वस्तु है तो अध्यात्म का प्रतिपाद्य चिन्मात्र वस्तु है..... वस्तुतः किसी भी विषय-वस्तु को मात्र जानने के सन्दर्भ में कहना, आगम शैली है और उसी विषय का आत्मानुभूति-- पोषक अर्थ निकालना, अध्यात्म शैली है; अतः अध्यात्म ग्रन्थों में भी आगम का सुमेल तथा आगम ग्रन्थों में अध्यात्म की मनोरम छटा सहज मिल जाती है।
२१. प्रत्येक पदार्थ के स्वचतुष्टय - द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में भाव का विशेष महत्त्व है।.... आत्मानुभूति में भी भाव का महत्त्व है। ...आत्मा को प्रमत्त-अप्रमत्त से रहित एक ज्ञायकभावरूप कहा गया है। यह बात अलग है कि वह ज्ञायकभाव, स्वत:सिद्ध, अनादि-अनन्त और असंख्यप्रदेशी भी है; अत: वह द्रव्य-क्षेत्र-काल से सर्वथा भिन्न भी नहीं है।'
२२. भिन्न-भिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से 'द्रव्य'शब्द के भिन्न-भिन्न प्रयोग किये जाते हैं। - १. प्रमाण के विषयभूत द्रव्य में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावात्मक सम्पूर्ण वस्तु का समावेश होता है। २. आगम शैली में प्रमाण के विषयभूत जीवद्रव्य में रागादि विकार, गुणस्थानादि भेद तथा नर-नारकादि सभी पर्यायें शामिल होती हैं। ३. अध्यात्म शैली में प्रमाण के विषय में शुद्ध जीवद्रव्य और मात्र उसकी निर्मल पर्यायें शामिल होती हैं।
२३. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावमयी, सामान्य-अभेद-नित्य-एक - 1. नय-रहस्य, पृष्ठ 205 2. वही, पृष्ठ 214 3. वही, पृष्ठ 220-222 4. वही, पृष्ठ 225 नय-रहस्य