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सकती है - कृपया इसका उत्तर दीजिए ?
समाधान - व्यवहार का सम्यक् रत्नत्रय से सर्वथा भेद मानने पर निश्चय का भी अभाव हो जाएगा, क्योंकि सर्वथा भेद को ही मानने पर अभेद का व्यवहार भी नहीं हो सकेगा; अतः कथंचित् भेद मानने पर ही व्यवहार के द्वारा परमार्थ की सिद्धि होती है - ऐसा आगम-वचन है ।
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इस प्रकार जब तक यह आत्मा, व्यवहारनय और निश्चयनय - इन नयों के माध्यम से तत्त्व का अनुभव करता है; तब तक परोक्षानुभूति रहती है, क्योंकि प्रत्यक्षानुभूति तो नयपक्षातीत है ।"
शंका- यदि ऐसा है तो दोनों ही नय, समानरूप से ही पूज्यत्व को प्राप्त हो जाएँगे ?
समाधान- नहीं, ऐसा नहीं है, क्योंकि व्यवहारनय तो पूज्यतर है, लेकिन निश्चयनय पूज्यतम है। "
"शंका - प्रमाणलक्षण वाला व्यवहारनय; व्यवहार, निश्चय और अनुभय- सभी को ग्रहण करने वाला होने से उसका विषय अधिक होने पर भी वह पूज्यतम क्यों नहीं है ?
समाधान क्योंकि वह प्रमाणलक्षण वाला व्यवहारनय भी आत्मा को नयपक्षातीत नहीं कर सकता, अतः वह भी पूज्यतम नहीं है । वह इस प्रकार है - प्रमाण में निश्चय का अन्तर्भाव होने पर भी वह अन्ययोग का व्यवच्छेद नहीं करता तथा अन्ययोग के व्यवच्छेद के अभाव में व्यवहारलक्षण वाली भावक्रिया (विकल्प - जाल) का निरोध करना अशक्य है; अतः वह आत्मा को ज्ञानचैतन्य में स्थापित करने में असमर्थ है। 2
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वही आगे कहते हैं - " निश्चयनय, आत्मा को सम्यक् प्रकार से एकत्व प्राप्त करा कर, ज्ञान- चैतन्य में अच्छी तरह स्थापित कर,
2. वही, पृष्ठ 25
1. श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ 24
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नय - रहस्य