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नय-रहस्य गौणता होती है, अतः उन्हें आगम या अध्यात्म ग्रन्थ कहकर सम्बोधित किया जाता है, परन्तु न तो कोई ग्रन्थ शत-प्रतिशत आगम का होता है और न अध्यात्म का।
. ग्रन्थराज समयसार, प्रवचनसार आदि की टीकाओं और भावार्थ में द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयों के माध्यम से भी आत्मा का वर्णन किया गया है। सकल कर्मफल के संन्यास की भावना नचाते हुए कर्मों की 148 प्रकृतियों का वर्णन भी किया गया है। इसीप्रकार धवलादि टीकाओं में मिथ्यादृष्टि जीव को भी मंगल कहकर विकार और स्वभाव में भिन्नता का उल्लेख किया गया है। ,
आगम का प्रतिपाद्य सन्मात्र वस्तु है तो अध्याम का प्रतिपाद्य चिन्मात्र वस्तु है। अध्यात्म शैली चिन्मात्र वस्तु के परपदार्थों से सम्बन्ध को अभूतार्थ कहकर, उसके अन्तरंग वैभव का ज्ञान कराती हुई, अभेद अखण्ड निर्विकल्प स्वभाव तक ले जाती है; अतः उसमें प्रयुक्त नय आत्मा तक सीमित रहते हैं, जबकि आगम का विषय असीमित होने से उसमें अनेक प्रकार के नय-भेदों का प्रयोग किया। जाता है।
वस्तुतः किसी भी विषय-वस्तु को मात्र जानने के सन्दर्भ में कहना, आगम शैली है और उसी विषय का आत्मानुभूति-पोषक अर्थ निकालना, अध्यात्म शैली है। अतः अध्यात्म ग्रन्थों में भी आगम का सुमेल तथा आगम ग्रन्थों में भी अध्यात्म की मनोरम छटा सहज मिल जाती है। - प्रश्न 7 - आत्मार्थी को तो मात्र आत्मा को जानने का प्रयोजन होता है। इतने भेद-प्रभेदों में उलझना तो पण्डितों का काम है, अतः हम इसमें अपना समय नष्ट क्यों करें?
उत्तर - भाई! तुझे क्या हो गया है? विषय-कषायों में तुझे समय