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नय-रहस्य उन्हें असद्भूतव्यवहारनय और नयाभास कहकर स्वीकार किया है और अन्ततः निश्चयनय, इन दोनों का निषेध कर ही देता है।
' इसप्रकार यह कहा जा सकता है कि दोनों शैलियों को आत्मा और देहादि का सम्बन्ध इष्ट नहीं है और उनकी संयोगरूप अवस्था से इनकार भी नहीं है। इसलिए दोनों शैलियों में विरोध नहीं है।
वस्तु-स्थिति यह है कि प्रथम शैली में प्ररूपित असद्भूतव्यवहार के कथनों को द्वितीय शैली में अध्यात्म के जोर में अर्थात् भेद-विज्ञान
और वीतरागदशा प्रगट करने की मुख्यता से नयाभास कहा गया है, क्योंकि उन्हें नय न मानने पर जो व्यवहारापत्ति खड़ी होती है, उसके निराकरण के लिए उन्हें उपेक्षा बुद्धि से ही सही नयाभासों को अपनाना पड़ा।
प्रश्न - क्या अध्यात्म के जोर में प्रचलित पद्धति से विरुद्ध कथन किया जाना उचित है? क्या जिनागम में इसप्रकार के और भी कथन उपलब्ध होते हैं?
__उत्तर - आत्मानुभूति के प्रयोजन की मुख्यता से अध्यात्म ग्रन्थों में ऐसे अनेक कथन पाये जाते हैं, जो प्रचलित पद्धति से विरुद्ध प्रतीत होते हैं, परन्तु उनकी अपेक्षा समझ ली जाए तो विरोध मिट जाता है। ऐसे कुछ कथन इसप्रकार हैं -
1. समयसार में अनेक स्थलों पर मोह-राग-द्वेष तथा सुखदुःखादि जीव के परिणामों का कर्ता पुद्गल को कहकर, रागादि को ही पुद्गल कहा है - ऐसे कथन, शुद्धनिश्चयनय से जीव के चैतन्यस्वभाव को रागादि से भिन्न बताने के प्रयोजन से किये गये हैं।
2. समयसार में पुण्य-पाप को एक बताते हुए पुण्य-पाप अधिकार लिखा गया है तथा योगसार, गाथा 71 में पुण्य को भी पाप कहा गया है। निश्चय से पुण्य भी बन्ध का कारण है - ऐसा समझकर उसे हेय जानकर वीतरागभाव को ही सच्चा मोक्षमार्ग बताने के प्रयोजन से यह कथन किया गया है।