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पंचाध्यायी में समागत व्यवहारनय के भेद-प्रभेद एवं नयाभास
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शैली में प्रयुक्त असद्भूतव्यवहारनय पर आवश्यकता से अधिक वजन देकर परद्रव्यों में एकत्व - ममत्व तथा कर्तृत्व- भोक्तृत्व का अभिप्राय पुष्ट करते होंगे। उनके समय ही क्यों ? ऐसे लोग तो हर समय रहते हैं, आज भी हैं, उस समय यह प्रवृत्ति जरा ज्यादा दिखती होगी। हो सकता है - अनेक वक्तागण भी ऐसी प्ररूपणा करते हों, जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप उन्हें इतनी कठोर भाषा का प्रयोग करना पड़ा। न केवल असद्भूतव्यवहारनय, अपितु किसी भी नय को सही न समझ कर, उसकी आड़ में मिथ्यात्व का पोषण करना नयाभास ही होता है। पण्डित टोडरमलजी ने तो निश्चयाभास, व्यवहाराभास तथा उभयाभास का वर्णन कर, इसी तथ्य का रहस्योद्घाटन किया है।
दोनों शैलियों के अभिप्राय में वीतरागता - सूक्ष्मता से विचार किया जाए तो दोनों शैलियाँ अनादिकालीन मिथ्यात्व पर प्रहार करती हैं। दोनों शैलियों में देह, मकान आदि को अपना मानने का निषेध किया गया है । अन्तर मात्र इतना है कि प्रथम शैली में पर-पदार्थों से जीव के सम्बन्ध को असद्भूतव्यवहारनय कहा गया है और दूसरी शैली में उसे नयाभास कहा गया है। प्रथम शैली भी इसे असद्भूतव्यवहार कहकर, उसका निषेध करके परमार्थ का अनुभव करने की बात कहती है।
वास्तव में देखा जाए तो पर-वस्तुओं से आत्मा का सम्बन्ध बतानेवाले कथन, पारमार्थिक सत्य न होने से निषेध्य ही हैं। चाहे उन्हें असद्भूतव्यवहार कहकर उनका निषेध किया जाए या नयाभास कहकर, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। इस सम्बन्ध को असद्भूत कहने का अर्थ ही यह है कि इसे वास्तविक न माना जाए।
देहादि पर - पदार्थों से आत्मा के संयोग या निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का सर्वथा निषेध किसी भी शैली में नहीं किया गया; मात्र