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नय - रहस्य
दिखाने के लिए ग्रन्थाधिराज समयसार परमागम की रचना की।
इसीप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द के समय में ही निर्ग्रन्थ मार्ग में अनेक विकृतियाँ आने लगी थीं। यहाँ तक कि सवस्त्र मुनिदशा की मान्यताएँ भी जोर पकड़ने लगी थीं; अतः अष्टपाहुड़ ग्रन्थ, इन विकृतियों के कठोर प्रतिकार का ही परिणाम है।
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आचार्यकल्प पण्डितप्रवर टोडरमलजी विरचित मोक्षमार्ग प्रकाशक तो तत्कालीन मान्यताओं और परम्पराओं पर कठोर प्रहार करने का जीवन्त प्रमाण है। वर्तमान युग युग में पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की दृष्टि - प्रधान प्रवचन शैली भी तत्कालीन समाज़ की अध्यात्म - शून्य तथा क्रियाकाण्ड में मुग्ध दृष्टि के विरुद्ध क्रान्ति से निर्मित हुई है। उन्हें जब समयसारं ग्रन्थ के समागम से यथार्थ दृष्टि प्राप्त हुई, उस समय जैन समाज के सभी वर्गों में- द्रव्यकर्म से विकार होता है, पुण्य से धर्म होता है - आदि अनेक मिथ्या मान्यताएँ प्रचलित थीं, जिनका खण्डन करते हुए पूज्य गुरुदेवश्री ने कण-कण की स्वतन्त्रता तथा अकर्ता ज्ञायकस्वभाव का जयघोष किया।
शुद्धनय-प्रधान शैली होने पर भी उनके प्रवचन में प्रमाण की मर्यादा का कहीं भी उल्लंघन नहीं हुआ है। यदि उन्हें श्रोताओं के व्यावहारिक जीवन में कोई शिथिलाचार नजर आता है तो वे उस पर भी जमकर प्रहार करते हैं।
इसप्रकार परमपूज्य आचार्य कुन्दकुन्द आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी एवं पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में यदि पंचाध्यायीकार का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो उनके द्वारा प्ररूपित बातों का औचित्य समझा जा सकता है।
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उनके समय निश्चित ही ऐसे लोगों का बाहुल्य होगा, जो प्रथम