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________________ पंचाध्यायी में समागत व्यवहारनय के भेद-प्रभेद एवं नयाभास 203 यहाँ पंचाध्यायीकार को प्रथम शैली का विरोधी समझने की अपेक्षा, हमें उन परिस्थितियों और विवक्षाओं का विचार करना आवश्यक है, जिनके कारण उन्हें यह रुख अपनाना पड़ा। प्रत्येक वक्ता/लेखक तत्कालीन समय में प्रचलित मान्यताओं और परम्पराओं से मनोवैज्ञानिक स्तर पर प्रभावित हुए बिना नहीं रहता; अतः उसकी रचनाओं में भी उनका समर्थन/विरोध झलकता है। लौकिक क्षेत्र में हुए साहित्यकारों की रचनाओं में प्राय: यह प्रवृत्ति सहज देखी जा सकती है। उदाहरणार्थ, उन्नीसवीं शताब्दी में हुए प्रसिद्ध हिन्दी लेखक मुंशी प्रेमचन्द की कहानियों एवं उपन्यासों में तत्कालीन समाज की राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का भरपूर चित्रण किया गया है। ... यही स्थिति जैन साहित्यकारों की भी है। यद्यपि जैन सिद्धान्त, शाश्वत सत्य के प्रतिपादक होते हैं, इसलिए वे तत्कालीन समाज की मान्यताओं से प्रभावित नहीं होते; तथापि वक्ता किस सिद्धान्त को अधिक महत्त्व दे और किस सिद्धान्त का उल्लेख मात्र करके रह जाए - यह तत्कालीन समाज में प्रचलित मान्यताओं पर निर्भर रहता है। नयों का सामान्य स्वरूप स्पष्ट करते समय अध्याय दो में विवक्षित और अविवक्षित धर्म के प्रकरण में यह बात स्पष्ट की जा चुकी है। __ तत्कालीन मान्यताओं का वक्ताओं पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव हर युग में देखा जा सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द के पूर्व प्रथम श्रुतस्कन्ध की रचना हो चुकी थी। षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में पर्यायार्थिकरूप व्यवहारनय से जीव के स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया जा चुका था, परन्तु शुद्धनय या निश्चयनय के विषयभूत एक अखण्ड त्रिकाली ज्ञायकभाव के निरूपण से तत्कालीन साहित्य अछूता था; अतः आचार्यदेव ने द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अन्तर्गत एकत्व-विभक्त आत्मा का स्वरूप
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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