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पंचाध्यायी में समागत व्यवहारनय के भेद - प्रभेद एवं नयाभास
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प्रथम नयाभास में संश्लेषसहित पदार्थों के एकत्व को तथा द्वितीय नयाभास में उन्हीं के कर्ता-कर्म सम्बन्ध को ग्रहण किया गया है। तृतीय नयाभास में संश्लेषरहित पदार्थों के कर्तृत्व को ग्रहण किया गया है तथा चतुर्थ नयाभास बोध्य-बोधक सम्बन्ध को विषय बनाया गया है। बोध्य-बोधक अर्थात् ज्ञान - ज्ञेय सम्बन्ध को अन्यत्र (आलापपद्धति, पृष्ठ 227 में) असद्भूतव्यवहारनय अथवा अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय के अन्तर्गत लिया है।
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प्रथम और द्वितीय शैली में समन्वय
यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि पंचाध्यायीकार, अपने विचारों को प्रस्तुत करते हुए अपने से भिन्न विचारकों के लिए दुर्मति मिथ्यादृष्टि जैसे शब्दों का प्रयोग भी करते हैं। जहाँ एक ओर वे निश्चयनय के भेद माननेवालों को मिथ्यादृष्टि कहते हैं, वहीं दूसरी ओर आत्मा से संश्लेष सम्बन्धवाले अथवा अत्यन्त भिन्न क्षेत्रवर्ती पदार्थों का सम्बन्ध बतानेवाले अनुपचरित और उपचरित - असद्भूतव्यवहारनय का विषय माननेवालों को भी मिथ्यादृष्टि कहते हैं। उन्हें प्रथम शैली में निरूपित विवक्षाओं का भी ख्याल है, अतः उन विवक्षाओं में प्रस्तुत तर्कों को शंका के रूप प्रस्तुत करके उनका समाधान करते हुए अपने विचारों की पुष्टि करते हैं।
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ऊपरी दृष्टि से देखने पर ऐसा मालूम पड़ता है कि दोनों शैलियों में तीव्र विरोध है तथा पंचाध्यायीकार अत्यन्त कठोर भाषा का प्रयोग करते हुए प्रचलित और परम्परागत शैली के विरोध में दिखते हैं, लेकिन वास्तव में दोनों शैलियों की अपनी-अपनी अपेक्षाएँ और अपने-अपने तर्क हैं। उन पर विचार किया जाए तो उनमें विरोध दिखने के स्थान पर उनका मर्म और प्रयोजन ख्याल में आ जाएगा, जिससे कोई विरोध भासित नहीं होगा ।