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• नय-रहस्य व्यवहार को कैसे रोका जा सकता है? तो हमारा कहना है कि ऐसा व्यवहार होता है तो होने दो, इसमें कोई हानि नहीं है, क्योंकि यह लोक-व्यवहार नयाभास है।
तृतीय नयाभास - जो जीव के साथ बँधे नहीं हैं - ऐसे परपदार्थों का भी कर्ता-भोक्ता जीव है - ऐसा मानना, तृतीय नयाभास है। जैसे, सातावेदनीय के उदय के निमित्त से होनेवाले घर, धन-धान्य, स्त्रीपुत्रादि भावों का कर्ता-भोक्ता यह जीव स्वयं है।
शंका - घर, स्त्री आदि के होने पर जीव सुखी होता है और उनके अभाव में जीव दुःखी होता है - यह प्रत्यक्ष देखा जाता है, अतः जीव को उनका कर्ता-भोक्ता मानने में क्या आपत्ति है? - समाधान - यह कहना ठीक है, परन्तु यह वैषयिक सुख पर (आत्मा से भिन्न) होने पर भी पर-पदार्थ की अपेक्षा से उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि धन-स्त्री आदि पर-पदार्थ किन्हीं जीवों के लिए दुःख के कारण भी देखे जाते हैं, अतः इनका कर्ता-भोक्ता जीव को मानना उचित नहीं है।
चतुर्थ नयाभास - ज्ञान और ज्ञेय में परस्पर बोध्य-बोधक सम्बन्ध होने के कारण ज्ञान को ज्ञेयगत और ज्ञेय को ज्ञानगत मानना, चतुर्थ नयाभास है; क्योंकि जिसप्रकार चक्षु, रूप को देखती है, तथापि वह रूप में नहीं चली जाती, किन्तु वह चक्षु ही रहती है, उसीप्रकार ज्ञान, ज्ञेय को जानता है, तथापि वह ज्ञेयरूप नहीं हो जाता, किन्तु ज्ञान ही रहता है।
उक्त चार नयाभासों के विवेचन से स्पष्ट है कि प्रथम शैली में प्ररूपित उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय को यहाँ तृतीय नयाभास में तथा अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय को यहाँ प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ नयाभास कहा गया है।