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________________ पंचाध्यायी में समागत व्यवहारनय के भेद-प्रभेद एवं नयाभास 199 शरीर और जीव एकक्षेत्रावगाही हैं, इसलिए उनमें एकत्व का व्यवहार हो जाएगा - ऐसी आशंका भी ठीक नहीं है, क्योंकि एकक्षेत्रावगाहीपना सभी द्रव्यों में है, परन्तु वे अभिन्न नहीं हैं; अतः एकक्षेत्रावगाहीपना हेतु से जीव और शरीर को अभिन्न मानने में अतिव्याप्ति दोष आएगा। जीव और शरीर नियम से भिन्न-भिन्न ही हैं, अतः उनमें बन्ध्यबन्धक भाव मानना स्वतः असिद्ध है। जीव और शरीर में निमित्तनैमित्तिक भाव होने से उन्हें एक मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो स्वयं परिणमनशील है, उसे निमित्तपने से क्या लाभ है? इसप्रकार एकक्षेत्रावगाहीपना, बन्ध्य-बन्धकभाव तथा निमित्तनैमित्तिकभाव - इन तीनों हेतुओं से जीव और शरीर में एकत्व का व्यवहार, मिथ्या होने से नयाभास है। द्वितीय नयाभास - पुद्गल के कर्म-नोकर्मरूप कार्यों का कर्ताभोक्ता जीव है - ऐसा माननेरूप व्यवहार, द्वितीय नयाभास है; क्योंकि कर्म-नोकर्म जीव से भिन्न हैं तो उनमें गुण-संक्रम कैसे हो सकता है; अतः जीव को इनका कर्ता-भोक्ता मानना, सिद्धान्त-विरुद्ध होने से इसे नयाभास मानना, असिद्ध नहीं है। यदि गुण-संक्रम के बिना ही जीव को कर्मों का कर्ता-भोक्ता माना जाए तो सर्व पदार्थों में सर्व संकरदोष और सर्व शून्यदोष प्राप्त होता है। जीव की अशुद्धपरिणति के निमित्त से पुद्गल स्वयं ही कर्मरूप से परिणमित होता है, इसलिए यह भ्रम हो जाता है कि जीव, कर्मों का कर्ता-भोक्ता है, परन्तु प्रत्येक द्रव्य, अपने स्वभाव का ही कर्ताभोक्ता है, परभाव उसमें निमित्त मात्र हैं, परन्तु जीव उनका अथवा कर्म, जीव के कर्ता-भोक्ता नहीं हैं। यदि यह कहा जाए कि कुम्हार घट का कर्ता है - इस लोक
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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