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नय-रहस्य वस्तुओं से आत्मा का सम्बन्ध स्थापित करने को नय मानने से इनकार करते हुए उसे नयाभास निरूपित करते हैं।
इस सम्बन्ध में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जो एक वस्तु के गुणों को दूसरी वस्तु में आरोपित करते हैं, वे नय नहीं; किन्तु नयाभास हैं, क्योंकि वे सब मिथ्यावाद होने से खण्डित हो जाते हैं; उन्हें नय कहनेवाले भी मिथ्यादृष्टि ठहरते हैं, क्योंकि जीव को वर्णादिवाला कहने से कोई लाभ तो है नहीं, उल्टा दोष ही है; क्योंकि इससे जीव और वर्णादि में एकत्वबुद्धि होने लगती है।
- यह पूछे जाने पर कि वस्तु का विचार करने पर गुण हो या दोष, किन्तु उक्त नय-प्रवाह, न्याय-बल से प्राप्त है तो ग्रन्थकार तर्क देते हैं कि कौन-सा नय सम्यक् है और कौन-सा नय मिथ्या - इसका विचार करना भी अनिवार्य है।
यद्यपि ग्रन्थकार स्वयं, अन्य द्रव्य के गुणों की बलपूर्वक अन्य 'द्रव्य में संयोजना करना, असद्भूतव्यवहारनय बताते हैं, तथापि यहाँ वे स्वयं इस बात का निषेध करते हुए दिख रहे हैं। इस विरोधाभास का समाधान करते हुए वे स्वयं कहते हैं कि जैसे, ये क्रोधादिभाव जीव में उत्पन्न होते हैं, वैसे वर्णादि जीव में उत्पन्न नहीं होते; अतः असद्भूतव्यवहारनय के विषयरूप क्रोधादि को जीव का कहना अनुचित नहीं है।
प्रथम शैली में प्ररूपित अनुपचरित और उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय के सभी कथनों को द्वितीय शैली में नयाभास कहा गया है। पंचाध्यायीकार ने श्लोक 564-586 तक चार प्रकार के नयाभासों का वर्णन किया है, जिनका संक्षिप्त विवेचन यहाँ किया जा रहा है।
प्रथम नयाभास - मनुष्यादि का शरीर जीव है, क्योंकि वह जीव से अभिन्न है - ऐसा व्यवहार करना, प्रथम नयाभास है, क्योंकि यह व्यवहार, सिद्धान्त-विरुद्ध होने से अव्यवहार ही है, जीव और शरीर भिन्न-भिन्न धर्मी हैं।