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पंचाध्यायी में समागत व्यवहारनय के भेद-प्रभेद एवं नयाभास 197 सद्भूत, अशुद्ध-सद्भूत, अनुपचरित-असद्भूत और उपचरितअसद्भूत-व्यवहारनय के इन चार प्रकारों में फैला दिया है।
जिन रागादिक भावों को अन्यत्र अशुद्ध-सद्भूतव्यवहारनय के विषय के रूप में बताया गया है, उन्हें पंचाध्यायीकार असद्भूतव्यवहारनय के विषय में ले लेते हैं तथा असद्भूतव्यवहारनय को दो भेदों में विभाजित करने के लिए वे रागादि विकारीभावों को बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक - इन दो भेदों में विभाजित कर देते हैं। इसप्रकार उनके अनुसार बुद्धिपूर्वक राग, उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का तथा अबुद्धिपूर्वक राग, अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का विषय बनता है। ___ शुद्धता और अशुद्धता को आधार बनाकर सद्भूतव्यवहारनय के जो दो भेद, प्रथम शैली में किए गए हैं, उनमें अशुद्धता के आधार पर रागादि विकार, अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय के विषय बनते हैं, किन्तु जब पंचाध्यायीकार रागादि को असद्भूतव्यवहारनय के भेदों में ले लेते हैं तो अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय के विषय की समस्या उपस्थित हो जाती है। उसका समाधान वे इसप्रकार करते हैं कि अर्थ-विकल्पात्मक ज्ञान अर्थात् जो रागादि को जाने, वह ज्ञान - यह तो अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय का विषय बनता है और सामान्य ज्ञान अर्थात् ज्ञान, वह आत्मा - ऐसा भेद शुद्धसद्भूतव्यवहारनय का विषय बनता है।
प्रश्न - प्रथम शैली में शरीरादि पर वस्तुओं से आत्मा का सम्बन्ध स्थापित करना, असद्भूतव्यवहारनय का विषय कहा है, जबकि द्वितीय शैली में क्रोधादि भावों को जीव का कहना, असद्भूतव्यवहारनय माना गया है; अतः द्वितीय शैली के अनुसार शरीरादि भिन्न वस्तुओं से आत्मा का सम्बन्ध किस नय का विषय माना गया है?
उत्तर - प्रथम अध्याय, श्लोक 552 से 557 में पंचाध्यायीकार पर