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पंचाध्यायी में समागत व्यवहारनय के भेद-प्रभेद एवं नयाभास 195 आनेवाले क्रोधादिभाव जीव के कहे जाते हैं, तब अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय प्रवृत्त होता है। पदार्थ की विभावरूप शक्ति, जब उपयोगदशा से युक्त होती है, तब भी वह उससे अभिन्न होती है अर्थात् यह नय, आत्मा के विभावरूप परिणामों को आत्मा से अभिन्न बताता है, परन्तु यहाँ विभाव परिणामों को असद्भूतव्यवहारनय से आत्मा का कहा है, इसका आशय यही है कि वे वास्तव में आत्मा के नहीं हैं। इसप्रकार यह नय, स्व और पर के निमित्त से (उपादान की योग्यता और कर्मोदय के निमित्त से) होनेवाले क्षणिक विकारों को आत्मा से भिन्न और हेय बताता है।
4. उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय - इस सम्बन्ध में वहीं श्लोक 549-551 में कहा गया है कि जब जीव के क्रोधादिक
औदयिकभाव बुद्धिपूर्वक विवक्षित होते हैं, तब उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय प्रवृत्त होता है अर्थात् यह नय, बुद्धिपूर्वक क्रोधादि को जीव का कहता है।
आत्मा में विभावरूप परिणमन होने की योग्यता होने पर भी परनिमित्त के बिना क्रोधादिभाव नहीं होते, अतः उन्हें स्व और पर, दोनों के निमित्त (कारण) से हुआ कहा जाता है और तब उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय प्रवृत्त होता है।
यदि बुद्धिपूर्वक अर्थात् ज्ञान में ज्ञात होनेवाले रागादि हैं तो अबुद्धिपूर्वक अर्थात् ज्ञान के विषय नहीं बननेवाले रागादि तो अवश्य होते ही हैं। अबुद्धिपूर्वक रागादि के बिना मात्र बुद्धिपूर्वक रागादि नहीं होते, इसलिए अनुमान की दृष्टि से बुद्धिपूर्वक राग को साधन और अबुद्धिपूर्वक को साध्य कहा जाता है अर्थात् बुद्धिपूर्वक राग, अबुद्धिपूर्वक राग का ज्ञान (अनुमान) कराता है। __ इसप्रकार उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय, अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का साधन है।