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________________ 194 नय-रहस्य यहाँ ज्ञान में ज्ञेयाकारों के भेद किये बिना उसे मात्र ज्ञानसामान्य के रूप में देखा जा रहा है। ज्ञानसामान्य चैतन्यरूप ही है, ज्ञेय को जानते समय भी वह ज्ञेयरूप नहीं होता, चैतन्यरूप ही रहता है इस सामान्यज्ञान को जीव का स्वरूप कहना, अनुपचरित-सद्भूतव्यवहार नय है। यहाँ अभेद आत्मा में ज्ञान और आत्मा में भेद करना/जानना, सद्भूतव्यवहारनय कहा गया है। ___2. उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय - इस सन्दर्भ में वहीं श्लोक 540-543 में कहा गया है कि हेतुवश स्वगुण का पररूप से अविरोधपूर्वक उपचार करना, उपचरितसद्भूतव्यवहारनय है। जैसेअर्थ-विकल्पात्मक ज्ञान प्रमाण है। यहाँ जगत् के स्व-पर समस्त पदार्थों को अर्थ कहा गया है और ज्ञान का उसरूप होना, विकल्प कहा गया है। यद्यपि ज्ञान तो निर्विकल्प ज्ञानमात्र है, फिर भी उसे अर्थविकल्पात्मक अर्थात् ज्ञेयाकाररूप कहना उपचार है, तथापि ज्ञेयों की अपेक्षा बिना निरालम्बी (सामान्य) ज्ञान का कथन करना सम्भव नहीं है; इसलिए यह उपचार किया जाता है अर्थात् ज्ञान को ज्ञेयाकार (अर्थ-विकल्पात्मक) कहा जाता है। ... ज्ञानसामान्य, ज्ञेयों से निरपेक्ष तथा स्वरूप सिद्ध होने से सत्रूप है। उसका ज्ञेयाकार परिणमन भी सत् है अर्थात् ज्ञान में ज्ञेयाकार परिणमन होता ही नहीं - ऐसा नहीं है; तथापि वह ज्ञान, ज्ञानरूप है, उसे ज्ञेयाकार कहना, उपचरित ही है। इसप्रकार ज्ञान में ज्ञेयकृत उपचार होने से ज्ञान को अर्थ-विकल्पात्मक कहना, उपचरितसद्भूतव्यवहारनय है। 3. अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय - इस सम्बन्ध में वहीं श्लोक 546-48 में कहा है कि अबुद्धिपूर्वक अर्थात् बुद्धि में न
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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