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पंचाध्यायी में समागत व्यवहारनय के भेद-प्रभेद एवं नयाभास 193 असद्भूतव्यवहारनय है अर्थात् वे जीव में हैं नहीं - ऐसा जानने पर क्रोधादि विकारी भावों से भिन्न शुद्धस्वभाव की प्रतीति होने से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। इसप्रकार यहाँ असद्भूतव्यवहारनय का फल भेद-विज्ञान और सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति बताया गया है।
यहाँ असद्भूतव्यवहारनय की परिभाषा तो अन्य ग्रन्थों के अनुसार ही है, परन्तु प्रयोग अलग प्रकार का है। प्रथम शैली में शरीरादि भिन्न पदार्थों से सम्बन्ध बताना, असद्भूतव्यवहारनय कहा गया है, किन्तु यहाँ क्रोधादि भावों को जीव का कहना, असद्भूतव्यवहारनय कहा जा रहा है। उन्हें असद्भूतव्यवहार कहने के लिए पंचाध्यायीकार पहले तो उन्हें द्रव्यकर्मों से उत्पन्न होने से मूर्तिक कह रहे हैं, फिर उन्हें जीव में हुए कहना, असद्भूतव्यवहारनय कह रहे हैं; जबकि अन्य ग्रन्थों में क्रोधादि को कर्मजन्य कहना, अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय कहा गया है। क्रोधादि को मूर्तिक मानकर, उन्हें जीव का कहने में पंचाध्यायीकार को असद्भूतव्यवहारनय की यह परिभाषा अन्यद्रव्यस्य गुणाः संयोज्यन्ते बलादन्यत्र लागू करने का अवसर मिल गया।
द्वितीय शैली के अनुसार व्यवहारनय के चारों भेदों का स्वरूप इसप्रकार है - ___ 1. अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय - पंचाध्यायी, अध्याय प्रथम, श्लोक 535-537 में ग्रन्थकार कहते हैं कि पदार्थ की आत्मभूत शक्ति को भेद किये बिना सामान्यरूप से उसी पदार्थ की कहना अनुपचरित सद्भूतव्यवहारनय है। "
जिसप्रकार घट के सद्भाव में जीव का ज्ञानगुण घट से निरपेक्ष चैतन्यस्वरूप रहता है, उसीप्रकार घट के अभाव में भी जीव का ज्ञानगुण घट की अपेक्षा बिना चैतन्यरूप ही है अर्थात् ज्ञान, सदा जीवोपजीवी है, ज्ञेय को जानते समय भी वह ज्ञेयोपजीवी नहीं होता।