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नय-रहस्य सम्पूर्ण प्रकरण पर अध्याय 8 में विस्तृत विचार किया जा चुका है। यही स्थिति असद्भूतव्यवहारनय के भेद-प्रभेदों की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में है, जिसका विवेचन यहाँ किया जा रहा है।
नयों के मूल भेदों की चर्चा पंचाध्यायी में भी प्रथम शैली के अनुसार ही है। उन्होंने भी सद्भूत और असद्भूत के रूप में व्यवहारनय के दो भेद किये हैं, उसके लक्षण आदि की मीमांसा निम्नप्रकार है -
1. सद्भूतव्यवहारनय - पंचाध्यायी, प्रथम अध्याय, श्लोक 525-527 में कहा है कि जिस वस्तु का जो गुण है, उसकी सद्भूत संज्ञा है और उन गुणों की प्रवृत्ति का नाम व्यवहार है। गुणों की प्रवृत्ति से आशय गुणभेद करके वस्तु को जानने या कहने से है। - वस्तु को उसके असाधारण गुण (विशेष गुण) के आधार पर अन्य वस्तुओं से भिन्न बताना, सद्भूतव्यवहारनय का प्रयोजन है। यह नय अखण्ड वस्तु में भेद करके वस्तु-स्वरूप को बताता है, अतः यह भेद का अभिव्यंजक (व्यक्त करनेवाला या प्रकाशक) नहीं है, अपितु . पर से भिन्नता स्थापित करनेवाला है।
2. असद्भूतव्यवहारनय - इस सम्बन्ध में वहीं श्लोक 529533 में कहा है कि अन्य द्रव्य के गुणों की अन्य द्रव्य में बलपूर्वक संयोजना करना असद्भूतव्यवहारनय है। जैसे - मूर्तिक कर्मों के संयोग से होनेवाले क्रोधादि मूर्त हैं, फिर भी उन्हें जीव में हुए कहना - असद्भूतव्यवहार नय का प्रयोग है। . आगन्तुक (विकारी) भावों का त्याग करने पर जो शेष बचता है,
वही उस वस्तु का शुद्ध गुण है और ऐसा माननेवाला पुरुष ही सम्यग्दृष्टि है। जैसे, चाँदी मिला हुआ सोना सफेद-सा लगता है, परन्तु जब उसमें से चाँदी का सम्बन्ध छूट जाए, तब वही सोना शुद्धरूप से अनुभव में आता है।
उक्त कथन का आशय यह है कि क्रोधादि को जीव में देखना