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नय - रहस्य
आत्मा का सीधा सम्बन्ध है, इसलिए उसे अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय का विषय कहना उचित ही है। जबकि स्त्री- पुत्रादि से आत्मा का सीधा सम्बन्ध नहीं है, वे शरीर से सम्बन्धित हैं, अतः इनसे आत्मा का सम्बन्ध बताना, उपचरित - असद्भूतव्यवहारनय का कथन है।
यहाँ यह विचार किया जा सकता है कि मति - श्रुतज्ञान, अपने विषय को इन्द्रिय और मन के निमित्त से जानते हैं, अतः उनका ज्ञानज्ञेय सम्बन्ध उपचरित -असद्भूतव्यवहारनय का विषय कहा जा सकता है तथा अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान, इन्द्रिय, प्रकाश आदि की सहायता बिना पदार्थों को सीधे जानते हैं, अतः उनका ज्ञान- ज्ञेय सम्बन्ध अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय का विषय कहा जा सकता है।
ज्ञेयाकार ज्ञान भी अपने ज्ञानस्वभाव को प्रकाशित करता है इसप्रकार एक ही आत्मा में ज्ञान - ज्ञाता - ज्ञेय का भेद, अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय का विषय बनता है।
प्रश्न व्यवहारनय के इतने भेद-प्रभेदों को जानने से क्या लाभ है ?
उत्तर जिनागम में आत्मा का स्वरूप समझाने के लिए
व्यवहारनय के उक्त भेद-प्रभेदों का कथन किया गया है। इनका यथार्थ ज्ञान किये बिना इनका मर्म जानना, सम्भव नहीं है। आत्मा की वर्तमान अवस्था में किन-किन पदार्थों से किस-किस प्रकार का सम्बन्ध है - यह ज्ञान करने के लिए इन भेद-प्रभेदों को जानना आवश्यक है तथा ये सम्बन्धं आत्मा का पारमार्थिक स्वरूप नहीं हैं, अतः इनसे दृष्टि हटाकर, पर से विभक्त और निज से एकत्वस्वरूप आत्मा में अहंपना स्थापित करने के लिए भी इन नयों का सच्चा स्वरूप जानना आवश्यक है। समयसारादि ग्रन्थराजों में भी सर्वत्र इन कथनों की वास्तविक
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