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________________ 187 व्यवहारनय के भेद-प्रभेद. स्थिति का ज्ञान कराकर, एकत्व-विभक्त आत्मा में जमने-रमने की प्रेरणा दी गई है। समयसार की आत्मख्याति टीका के कलश 242 में तो यहाँ तक कहा गया है कि - व्यवहारविमूढदृष्टयः, परमार्थं कलयन्ति नो जनाः। .. तुषबोधविमुग्धबुद्धयः, कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम्।। जिसप्रकार जगत् में जिनकी बुद्धि तुषज्ञान में ही मोहित हैं, वे तुष को ही जानते हैं, तन्दुल को नहीं; उसीप्रकार जिनकी दृष्टि व्यवहार में ही मोहित है, वे जीव परमार्थ को नहीं जानते हैं। उक्त कथन में व्यवहार में मोहित होने का निषेध किया गया है, जानने का नहीं। व्यवहार को जानना तो हैं, पर उसमें मोहित नहीं होना है। मोहित होने के लायक, अहं स्थापित करने लायक तो एक परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत निजशुद्धात्मद्रव्य ही है। अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय के नौ भेद । द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा 222-224 एवं श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ 61 में असद्भूतव्यवहारनय के भेदों का कथन इसप्रकार किया गया है - .. जो अन्य के गुणों को अन्य का कहता है, वह असद्भूतव्यवहारनय है। उसके तीन भेद हैं - सजाति, विजाति और मिश्र तथा उनमें भी प्रत्येक के तीनतीन भेद हैं। द्रव्य में द्रव्य का, गुण में गुण का, पर्याय में पर्याय का, द्रव्य में गुण और पर्याय का, गुण में द्रव्य और पर्याय का और पर्याय में द्रव्य और गुण का उपचार करना चाहिए। यह उपचार बन्धं से संयुक्त
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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