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व्यवहारनय के भेद-प्रभेद होने से ज्ञान के ज्ञेयों को जानने के अथवा स्व-परप्रकाशक स्वभाव का ही निषेध हो जाएगा? .
उत्तर – यहाँ जानने को असद्भूत नहीं कहा गया, अपितु ज्ञानज्ञेय के सम्बन्ध को असद्भूत कहा गया है। ज्ञान में ज्ञान की योग्यतानुसार ज्ञेय का जैसा आकार बनता है अर्थात् जैसा ज्ञेय का स्वरूप जाना जाता है - यही ज्ञेयों का जानना है, जिसमें ज्ञान और ज्ञेय स्वतन्त्र और निरपेक्ष होने से जानना परमार्थ ही है, परन्तु उस जॉनन-क्रिया को ज्ञेयों का जानना, ज्ञेयाकार ज्ञान आदि कहना असद्भूतव्यवहारनय है, परमार्थ नहीं।
प्रवचनसार, गाथा 23 की टीका में ज्ञान को उपचार से सर्वगत कहा है। इस सम्बन्ध में प्रवचन-सुधा, भाग 2, पृष्ठ 56 पर पूज्य गुरुदेवश्री के निम्न उद्गार ध्यान देने योग्य हैं - . यह आत्मा पर को जानता है तो ज्ञान की पर्याय ज्ञेय-प्रमाण । हो गई है। जितना ज्ञेय है, उस प्रमाण में ज्ञान हुआ। उस ज्ञेय-प्रमाण ज्ञान हुआ तो ज्ञान ज्ञेयाकार हो गया। वह (जो) ज्ञेयाकार हुआ, वह है तो ज्ञानाकार, परन्तु ज्ञेय को जानने से ज्ञेयाकार कहने में आता है।
अतः ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध को असद्भूत समझना चाहिए, ज्ञान के जाननस्वभाव तथा जाननेरूप परिणमन को नहीं, वह तो वास्तविक है।
प्रश्न - ज्ञाता-ज्ञेय सम्बन्ध को अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का विषय कहा गया है, जबकि ज्ञेय तो ज्ञान से अत्यधिक दूर भी होते हैं तो दूरवर्ती या भिन्न क्षेत्रवर्ती पदार्थों से ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध को उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का विषय क्यों न माना जाए?
उत्तर - जब दो द्रव्यों में सीधा सम्बन्ध स्थापित किया जाए, तब अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय घटित होता है। ज्ञान और ज्ञेय के बीच