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नय-रहस्य के बीच पाये जानेवाले अविनाभाव सम्बन्ध, संश्लेष सम्बन्ध, परिणाम-परिणामी सम्बन्ध, श्रद्धा-श्रद्धेय सम्बन्ध, ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध, चारित्र-चर्या सम्बन्ध आदि को अपना विषय बनाता है।
यहाँ यह तथ्य विशेष ध्यान देने योग्य है कि श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के विषयभूत श्रद्धेय, ज्ञेय और चर्या (चारित्र का विषय) से सम्बन्ध को भी असद्भूतव्यवहारनय का विषय कहा गया है। समयसार, गाथा 356 से 365 की टीका में सेटिका (कलई) के उदाहरण से ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा
और त्याग का उनके बाह्य विषयों से स्व-स्वामी सम्बन्ध का निषेध किया गया है।
प्रश्न - परस्पर भिन्न द्रव्यों में संश्लेष सम्बन्ध आदि को असद्भूतव्यवहारनय का विषय कहना तो उचित लगता है, परन्तु श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र तो आत्मा का स्वभाव है; अतः श्रद्धा-श्रद्धेय, ज्ञाता-ज्ञेय आदि सम्बन्ध को असद्भूतव्यवहारनय के विषय में शामिल क्यों किया जाता है?
उत्तर - परस्पर भिन्न द्रव्यों में किसी भी प्रकार का सम्बन्ध देखना असद्भूत ही है, क्योंकि वास्तव में दो द्रव्यों में कोई सम्बन्ध है ही नहीं। यद्यपि श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र तो अपने विषय से भी निरपेक्ष रहकर अपनी योग्यता से अपने स्वभावानुसार परिणमते हैं; अतः प्रतीति, जानना और रमणतारूप परिणमन तो निश्चय से आत्मा का परिणाम है, तथापि नवतत्त्व की श्रद्धा, ज्ञेयों का ज्ञान तथा पर में रमणता या पर का त्याग - ऐसा कहना असद्भूतव्यवहारनय का ही कथन है, क्योंकि इनमें पर-विषयों के साथ आत्मा के श्रद्धा आदि गुणों का सम्बन्ध बताया जा रहा है।
प्रश्न - यदि ऐसा है तो ज्ञान के द्वारा ज्ञेयों को जानना असद्भूत