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________________ व्यवहारनय के भेद-प्रभेद | 181 युगल भी हैं; एक द्रव्य में अनन्त गुण तभी हो सकते हैं, जब वे परस्पर . भिन्न हों; द्रव्य-गुण-पर्याय का लक्षण भी परस्पर भिन्न-भिन्न है; अतः एक वस्तु के भेद भी वास्तविक हैं, जिसे प्रवचनसार, गाथा 106 में अतद्भावस्वरूप कहा गया है। फिर भी रागी जीवों को भेद के लक्ष्य से राग उत्पन्न होता है, अतः अभेद वस्तु की अपेक्षा भेद को उपचरित भी कहा जाता है। रागादि अशुद्धपर्यायों के भेद से आत्मा को देखना, उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय है और ज्ञान-दर्शनादि गुणभेद से आत्मा को देखना, अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय कहा गया है। इससे स्पष्ट होता है कि ग्रन्थकार रागादिकृत भेद तथा गुणभेद में अन्तर बताना - चाहते हैं। वास्तव में उपचार तो असद्भूतव्यवहार में ही सम्भव है, क्योंकि दो द्रव्यों में परस्पर सम्बन्ध वास्तविक नहीं, कथन मात्र है। प्रश्न - यदि असद्भूतव्यवहारनय उपचरित है तो उसका एक भेद अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय कैसे कहा गया है? उत्तर - इसका स्पष्टीकरण करते हुए आलापपद्धति, पृष्ठ 227 पर कहा है - असद्भूतव्यवहार ही उपचार है और जो उपचार का भी उपचार करता है, वह उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय है। . उक्त कथन से स्पष्ट हो जाता है कि अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय भी वास्तव में उपचरित ही है। जिसमें मात्र उपचार हो, वह अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय है और जिसमें उपचार में भी उपचार हो, वह उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय है। लोक में भी ऐसे प्रयोग किये जाते हैं। कुछ लोगों से हमारा सीधा रिश्ता होता है तथा उनके रिश्तेदारों से भी हमारा रिश्ता कहे जाने पर वैसा रिश्ता नहीं निभाया जाता, जैसा सीधे रिश्तेदारों से निभाया जाता है। साले, बहनोई, मामा आदि से हमारी सीधी रिश्तेदारी है तथा मामा
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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