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व्यवहारनय के भेद-प्रभेद - ऐसा कहना शुद्ध द्रव्य या शुद्ध पर्यायों में शुद्धगुण-गुणी या शुद्ध पर्याय-पर्यायी का भेद करनेवाला, शुद्ध-सद्भूतव्यवहारनय का कथन है।
गुण सामान्य तो पर-संयोग से रहित हैं ही, क्षायिकभाव भी संयोग या विकार के अभावस्वरूप है तथा स्वभाव के अनुरूप पर्याय के भेद कथन को भी अनुपचरित-सद्भूतव्यवहार कहना, उपयुक्त है।
उपर्युक्त प्रयोग हमारे व्यावहारिक जीवन में बहुत कम होते हैं, अतः हमें कठिन मालूम पड़ते हैं, परन्तु आत्मा का स्वरूप समझकर, उसकी महिमा प्रगट करने के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं; अतः इन्हें सावधानी से समझना आवश्यक है। 2. अशुद्ध-(उपचरित)-सद्भूतव्यवहारनय के विभिन्न प्रयोग
नय-दर्पण, 672-673 पर अशुद्ध-सद्भूतव्यवहारनय के सम्बन्ध में निम्नानुसार स्पष्टीकरण किया गया है - . ___1. द्रव्य सामान्य अथवा अशुद्ध द्रव्य-पर्यायरूप अशुद्ध द्रव्य में अशुद्ध गुणों व अशुद्ध पर्यायों के आधार पर भेदोपचार द्वारा गुण-गुणी, पर्याय-पर्यायी, लक्षण-लक्ष्य आदिरूप द्वैत उत्पन्न करना, अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय है। ___2. अशुद्ध गुण व पर्यायें औदयिक (व क्षायोपशमिक) भावरूप होते हैं। जैसे, ज्ञान गुण की मतिज्ञानादि पर्यायें, चारित्रगुण की रागद्वेषादि पर्यायें तथा वेदन गुण की विषयजन्य सुख-दुःखादि पर्यायें।
3. जीव सामान्य, मतिज्ञान या राग-द्वेषवाला है - ऐसा कहना, द्रव्य सामान्य की अपेक्षा अशुद्ध-सद्भूतव्यवहारनय का प्रयोग है।
4. संसारी जीव, मतिज्ञान या राग-द्वेषवाला है - यह द्रव्यपर्याय की अपेक्षा अशुद्ध-सद्भूतव्यवहारनय का प्रयोग है। (यहाँ संसार अवस्था को द्रव्यपर्याय कहा गया है।) .