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व्यवहारनय के भेद-प्रभेद
शक्तियों का संग्रहालय, अनन्त गुणों का गोदाम, चैतन्य के नूर का पूर.... परमात्मा है.. I ऐसे वाक्य ही उनके प्रवचनों के प्रमुख आकर्षक बिन्दु हैं।
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एक आत्मा...आत्मा कहने मात्र से उसका स्वरूप समझ में नहीं आता; अतः अभेद आत्मा का स्वरूप समझने के लिए आत्मा के गुणों, शक्तियों, स्वभावों का भेद किया जाता है, क्योंकि स्वरूप का अवलम्बन करने के लिए आत्मा के ज्ञान-दर्शन- चारित्र, सुख, वीर्य आदि शक्तियों, गुणों तथा उनके कार्यों को जानना आवश्यक है।
आत्मा में अनन्त शक्तियाँ हैं, इसका भरोसा कैसे आए ? जब तक अनन्त ज्ञान - दर्शन - सुख-वीर्य आदि पूर्ण पर्यायरूप परिणमित आत्मा का भरोसा न हो, तब तक उसकी शक्तियों का भरोसा नहीं आ सकता; अतः अनुपचरित - सद्भूतव्यवहारनय, आत्मा की शक्तियों के साथ-साथ अरहन्तों और सिद्धों में प्रगट पूर्ण शुद्धपर्यायों का ज्ञान भी कराता है - पूर्ण शुद्धपर्याय में प्रगट होनेवाले आत्मवैभव का चित्रण आदरणीय युगलजी ने सिद्ध- पूजन की निम्न पंक्तियों में बहुत सुन्दर ढंग से किया है
अहो ! निखरा कांचन चैतन्य, खिले सब आठों कमल पुनीत । अतीन्द्रिय सौख्य चिरन्तन भोग, करो तुम धवल महल के बीच ।।
इसप्रकार अनुपचरित-सद्भूतव्यवहार आत्मा की पूर्ण शुद्ध पर्यायों का ज्ञान कराके मोक्षतत्त्व की श्रद्धा करने में निमित्त बनता है तथा आत्मा में विद्यमान गुणों / शक्तियों का ज्ञान कराके अभेद आत्मा की महिमा उत्पन्न करके आत्मानुभूति में निमित्त बनता है - यही उसकी उपयोगिता है।
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प्रश्न एक वस्तु में गुण- पर्याय आदि का भेद करना,