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नय-रहस्य की मुख्यता से आत्मा का परिचय देता है। संसार का प्रत्येक प्राणी दुःखी है और सुख चाहता है - यह तथ्य ही जैनधर्म का प्रमुख आधार है। आत्मा की रागादि विकारी पर्यायें, स्वयं दुःखरूप हैं तथा दुःख की कारण हैं, उन्हें जाने बिना उनका अभाव करना सम्भव नहीं है।
जिसप्रकार शरीर में होनेवाले रोग का स्वरूप और कारण जानकर ही उसे दूर किया जा सकता है, उसीप्रकार आत्मा की अवस्था में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेषरूपी रोग जाने बिना, उनका अभाव नहीं किया जा सकता। इसप्रकार आस्रव-बन्धतत्त्व की श्रद्धा, उपचरितसद्भूतव्यवहारनय को स्वीकार करने पर ही सम्भव है। यदि वर्तमान पर्याय में विद्यमान रागादि को स्वीकार न किया जाए तो धर्म करने की कोई आवश्यकता ही न रहेगी अर्थात् मोक्षमार्ग का उपदेश ही व्यर्थ हो जाएगा। 4. अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय की उपयोगिता
उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय से आत्मा में उत्पन्न होनेवाले रागादि भावों का ज्ञान करने का प्रयोजन, उनका अभाव करके मुक्ति प्राप्त करना है। इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए आत्मा का अवलम्बन अर्थात् आत्मा की श्रद्धा; उसका ज्ञान और उसी का आचरण करना अनिवार्य है, क्योंकि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मुक्ति का मार्ग है। इसप्रकार हमें मोक्षमार्ग क्यों प्रगट करना चाहिए? - इस प्रश्न का उत्तर तो : उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय से प्राप्त हो जाता है, परन्तु यह कार्य कैसे किया जाए - इसका उत्तर पाने के लिए अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय से आत्मा का स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि यह नय आत्मा के निजवैभव का ज्ञान कराता है।
पूज्य गुरुदेवश्री के प्रवचनों का केन्द्र बिन्दु भगवान आत्मा है। उनके शब्दों में कहा जाए तो भगवान आत्मा....अनन्त...अनन्त