________________
व्यवहारनय के भेद-प्रभेद
. 175, . असद्भूतव्यवहारेनय, आत्मा की वर्तमान संयोगी अवस्था का ज्ञान करने हेतु अत्यन्त उपकारी है।
विश्व के प्रायः सभी धर्म, जीव-दया को सबसे बड़ा धर्म तथा जीव-हिंसा को महापाप कहते हैं। जैनाचार-पद्धति का मूलाधार भी अहिंसा है। उसके व्यावहारिक स्वरूप - अभक्ष्य का त्याग, अष्ट मूलगुण-पालन, अहिंसाणुव्रत तथा अहिंसा महाव्रत आदि हमारे चरणानुयोग में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। यदि जीव और शरीर के एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध का सर्वथा निषेध किया जाए तो जैसे, भस्म को मसलने से जीव-हिंसा नहीं होती, वैसे जीवों को मसलने से भी हिंसा के अभाव का प्रसंग आता है।
__ इसप्रकार अहिंसात्मक आचार का पालन, अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय को स्वीकार करने से ही सम्भव है।
आत्मा की खोज करने का महान् कार्य भी अनुपचस्ति-असद्भूत'व्यवहारनय को जानने-मानने से सरल हो जाता है। वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा 10 में आत्मा को व्यवहारनय से देहप्रमाण कहा गया है। योगसार आदि ग्रन्थों में तन-मन्दिर में विराजमान चेतन-देव के दर्शन की प्रेरणा दी गई है। इसी आधार पर भक्ति की निम्न पंक्तियाँ गाई जाती हैं -
जिन-मन्दिर में श्री जिनराज, तन-मन्दिर में चेतनराज। तन-चेतन को भिन्न पिछान, जीवन सफल हुआ है आज।।
अन्य दर्शनों में आत्मा का अस्तित्व, सर्व लोक-व्यापी, वट के बीज प्रमाण तथा अंगुष्ठ प्रमाण आदि अनेकरूप माना गया है। जबकि जैनदर्शन का यह नय आत्मा को संसार-अवस्था में देह-प्रमाण कहकर, हमारी दृष्टि को बाहर से हटाकर, देह तक ले आता है। 3. उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय की उपयोगिता
उपचरित/अशुद्ध-सद्भूतव्यवहारनय, अपूर्ण तथा विकारी पर्यायों