________________
174
नय-रहस्य बन्ध का ही कारण है; अतः इस अपेक्षा उसे मोक्षमार्ग कहना उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का कथन भी कहा जा सकता है। 2. अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय की उपयोगिता . शरीर तथा द्रव्यकर्मों से आत्मा का सम्बन्ध बताना, अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय का प्रयोजन है। इनके साथ आत्मा का वास्तविक सम्बन्ध न होने पर भी इनमें तथा जीव की अवस्थाओं में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध का तथा शरीर के प्रति जीव के राग का प्रतिपादन करना ही इस नय की उपयोगिता है। ___ यद्यपि द्रव्यकर्मों के प्रति राग-द्वेष करने का साक्षात् व्यवहार, हमारे जीवन में नहीं देखा जाता, परन्तु उन कर्मों के साथ अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय से जीव के कर्ता-कर्म सम्बन्ध के आधार पर ही जैनदर्शन के कर्म-सिद्धान्त का महल खड़ा किया गया है। समयसार, गाथा 6 की आत्मख्याति टीका में एकत्व-विभक्त आत्मा को दिखाने की प्रतिज्ञा का पालन करते हए द्रव्यस्वभाव की अपेक्षा प्रमत्त-अप्रमत्त पर्यायों से भिन्न ज्ञायकभाव को संसार अवस्था में कर्म-पुद्गलों से नीर-क्षीर की भाँति मिला हुआ दिखाया है। - यह इसी व्यवहारनय का कथन है, लेकिन यदि इस नय का सर्वथा निषेध किया जाए तो जीव के राग-द्वेष, संसार-भ्रमण, कर्म-बन्ध तथा मोक्षमार्ग और मोक्ष के भी लोप होने का प्रसंग आएगा।
जीव और शरीर भी दूध और पानी के समान मिले हुए कहे गए हैं। समयसार, गाथा 27 में व्यवहारनय से जीव और देह को एक कहा गया है। हमारा सम्पूर्ण लौकिक जीवन, देह और आत्मा के सम्बन्ध के आधार पर ही संचालित होता है। शारीरिक सुख-दुःख ही हमारे जीवन-व्यवहार के मुख्य केन्द्र-बिन्दु हैं; अतः अनुपचरित