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________________ व्यवहारनय के भेद-प्रभेद . 173 अचेतन तथा नगर-ग्राम आदि मिश्र पदार्थों के साथ हमारे सम्बन्धों के आधार पर ही परिवार, कुल, गोत्र, जाति, रिश्ते-नातों आदि का व्यवहार चलता है। अपने ग्राम, नगर, प्रान्त, देश आदि के आधार पर परस्पर परिचय किया जाता है। इसी परिचय के निमित्त से एकत्वबुद्धि उत्पन्न होने से राग-द्वेष की सन्तति और संसार बढ़ता है। दो जातियों, कबीलों, राज्यों अथवा देशों में मैत्री या युद्ध का आधार भी यही व्यावहारिक सम्बन्ध बनता है। ___ यदि इस व्यवहार को यथार्थरूप में स्वीकार न किया जाए तो हमारी संस्कृति और सभ्यता ही नष्ट हो जाएगी। स्व-स्त्री तथा पर-स्त्री का व्यवहार भी लुप्त हो जाने से सदाचार और व्यभिचार का भेद ही नहीं रहेगा, जिससे मनुष्यों का जीवन भी पशुओं जैसा हो जाएगा। इसीप्रकार चोरी, परिग्रह आदि पापों का तथा इनके त्यागरूप अणुव्रतमहाव्रत आदि का विधान भी लुप्त हो जाएगा। . इसप्रकार उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय, न केवल व्यवस्थित लोक-व्यवहार का नियामक है, अपितु प्रथमानुयोग और चरणानुयोग की व्याख्यान पद्धति का आधार भी है। पारमार्थिक वस्तु-स्वरूप न होने से यद्यपि इसे असद्भूत कहा गया है, तथापि यह सर्वथा असत्य नहीं है। इसके अनुसार वचन और क्रिया का व्यवहार करने से असत्य नाम का पाप नहीं लगता, अपितु इसकी मर्यादाओं का उल्लंघन, पापों का जनक है। हाँ! यदि मोक्षमार्ग में इसे परमार्थ मानकर अपने स्वरूप का पर के साथ सम्बन्धरूप अनुभव किया जाए तो मिथ्यात्व होता है; इस सम्बन्ध का लक्ष्य किया जाए तो राग-द्वेष होते हैं, परन्तु इसे यथार्थ जानना, सम्यक्-श्रुतज्ञान का अंश होने से यह मोक्षमार्ग में जाना हुआ प्रयोजनवान है। शुभराग में मोक्षमार्ग का सर्वथा अभाव है, क्योंकि वह परमार्थ से
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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