________________
172
नय-रहस्य व्यवहारनय के भेद-प्रभेदों की उपयोगिता .
व्यवहारनय के चारों भेदों की विषय-वस्तु तथा उनकी कथंचित् सत्यार्थता (वजन) पर विचार करने के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब निश्चय की दृष्टि से सभी व्यवहार अभूतार्थ हैं, आत्मानुभूति में बाधक हैं तो उसके ये भेद-प्रभेद करने की क्या आवश्यकता है? यद्यपि इनकी विषय-वस्तु का विवेचन करते समय, इनकी उपयोगिता का संकेत भी किया जा चुका है, तथापि प्रत्येक भेद की उपयोगिता पर थोड़ा विस्तार से प्रकाश डालना आवश्यक है। .. प्रत्येक व्यवहार, परमार्थ का प्रतिपादक तो होता ही है; अतः परमार्थ का ज्ञान कराना, यही उसकी उपयोगिता है, फिर भी यहाँ प्रत्येक भेद की अलग-अलग उपयोगिता समझते हैं - 1. उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय की उपयोगिता ।
उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय आत्मा के प्रदेशों से भिन्न स्त्रीपुत्र, मकान आदि को आत्मा का कहता है। अनादि से अज्ञानी जीव तो बाह्य संयोगों को अपना तथा अपने को उनका कर्ता-भोक्ता मानते ही हैं, परन्तु अपने को उनसे भिन्न जाननेवाले ज्ञानी भी ऐसा कहते हुए सुने जाते हैं। ज्ञाता के अभिप्राय को ही नय कहा है, अतः वे उन्हें अपना कहकर उनके प्रति अपने राग का ज्ञान कराते हैं। राग, स्वयं को तो अनुभव में आता है, परन्तु दूसरों को तो स्त्री-पुत्रादि के प्रति हमारी रागात्मक चेष्टा अर्थात् वाणी तथा शरीरादि की क्रिया दिखाई देती है
और उनसे ही उन्हें उन पदार्थों से हमारे रागात्मक सम्बन्ध का ज्ञान होता है।
यद्यपि पारमार्थिक दृष्टि से हमारा शरीरादि पर-पदार्थों से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है, तथापि व्यावहारिक जगत् तो सम्बन्धों की आधार-शिला पर ही खड़ा है। स्त्री-पुत्रादि चेतन, मकान आदि