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व्यवहारनय के भेद-प्रभेद इन निर्मल पर्यायों से कर्ता-कर्म का भेद बतानेवाला व्यवहारनय का कोई पृथक् भेद नहीं कहा गया है। उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय से मतिज्ञानादि को जीव का कहा गया है, परन्तु वहाँ क्षायोपशमिक मतिज्ञान की बात है, मात्र सम्यग्ज्ञान की नहीं।
इस तथ्य से यह समझना चाहिए कि अनेक प्रसंगों में मात्र निषेधक होने से निश्चयनय तथा अभेद में भेद करने से व्यवहारनय घटित किये गए हैं। प्रत्येक कथन किसी न किसी भेद-प्रभेद में घटित किया ही जाए - ऐसा आवश्यक नहीं है। निश्चयनय के भेद-प्रभेदों के महत्त्व की तुलनात्मक समीक्षा
प्रश्न - जिसप्रकार यहाँ व्यवहारनय के भेद-प्रभेदों में महत्त्व की तुलना की गई है, उसीप्रकार निश्चयनय के चार भेदों में महत्त्व की तुलना भी हो सकती है क्या?
उत्तर - निश्चयनय को तो भूतार्थ या सत्यार्थ ही कहा है, इसे यदि हम परमशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा देखें तो उसकी बात में कम या अधिक महत्त्व का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। व्यवहारनय को असत्यार्थ कहा है, परन्तु उसे सर्वथा असत्यार्थ मानकर निश्चयाभास न हो जाए, इसलिए उसके भेद-प्रभेदों का महत्त्व अर्थात् कथंचित् सत्यार्थपना भी बताया गया है।
इसी प्रकार यदि निश्चयनय के भेद-प्रभेदों की तुलना की जाएगी तो जिसका महत्त्व कम होगा, वह व्यवहारनय की कोटि में चला जाएगा। अशुद्धनिश्चयनय के विषय. को भेद की अपेक्षा उपचरितसद्भूतव्यवहारनय कहा है। सर्वाधिक वजन तो नयाधिपति, नयाधिराज परमशुद्धनिश्चयनय का है, जिसके सामने निश्चयनय के शेष तीनों भेद निषिद्ध होकर व्यवहारनयपने को प्राप्त हो जाते हैं, असत्यार्थ या - अभूतार्थ हो जाते हैं।