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________________ नय - रहस्य यहाँ चारों भेदों के वजन अर्थात् वस्तु स्वरूप से उनकी निकटता की तुलनात्मक समीक्षा की गई है। किसी भी भेद को अपने पूर्ववर्ती भेद का निषेधक नहीं कहा गया है, क्योंकि निषेधक लक्षण निश्चयनय का है। इसीप्रकार प्रत्येक भेद अपने उत्तरवर्ती निश्चय का प्रतिपादक तो कहा जाएगा, परन्तु अपने उत्तरवर्ती व्यवहार का प्रतिपादक नहीं माना जा सकता, क्योंकि व्यवहार - व्यवहार में प्रतिपाद्य - प्रतिपादक सम्बन्ध नहीं है, बल्कि निश्चय - व्यवहार में प्रतिपाद्य - प्रतिपादक सम्बन्ध है । यदि व्यवहार को ही उसके पूर्ववर्ती भेद का निषेधक कहें तो वह व्यवहारनय का भेद न रहकर निश्चयनयत्व को प्राप्त हो जाएगा । 170 प्रतिपाद्यप्रतिपादक और निषेध्य-निषेधक की चर्चा पहले की जा चुकी है, फिर भी निश्चयनय का कौन - सा भेद, व्यवहारनय के किस भेद का निषेध करता है यह बात निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट हो जाती है - निषेधक अशुद्धनिश्चयनय एकदेशशुद्धनिश्चयनय उपचरित - सद्भूतव्यवहारनय परमशुद्धनिश्चयनय अनुपचरित - सद्भूतव्यवहारनय यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि समयसार, कलश 168 में परद्रव्य, आत्मा को सुखी - दुःखी करते हैं - इसका निषेध करने के लिए आत्मा के सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि निश्चय से अपने कर्मोदय के अनुसार होते हैं - ऐसा कहा है, परन्तु निश्चयनय के भेदों में ऐसा कोई भेद नहीं, जो आत्मा को कर्मोदय से सुखी - दुःखी कहे। इसीप्रकार आत्मा में रागादि हैं - ऐसा उपचरित - सद्भूतव्यवहारनय से कहा गया है और आत्मा, सम्यग्दर्शनादि एकदेश निर्मल पर्यायों का कर्ता है - यह कथन एकदेशशुद्धनिश्चयनय का माना गया है, फिर भी निषेध्य उपचरित और अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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