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व्यवहारनय के भेद-प्रभेद
169 अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय, अपने पूर्ववर्ती उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय से अधिक वजनदार है। औदयिक और क्षायोपशमिकभाव, सादिसान्त हैं और क्षायिकभाव, सादि-अनन्त हैं तथा गुणभेद तो आत्मा के अनन्त धर्म में से एक धर्म अर्थात् आत्मा के स्वभाव ही हैं, इसलिए अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय हमारे लक्ष्यबिन्दु भगवान आत्मा के अधिक निकट है।
__ इसप्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारनय के चार भेद उत्तरोत्तर अधिक वजनदार हैं। ... प्रश्न - व्यवहारनय के चार भेदों में परमशुद्धनिश्चयनय के प्रतिपादक व्यवहारनय का कथन क्यों नहीं किया गया है?
उत्तर - गुणभेद का ग्रहण करनेवाला अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय ही उसका प्रतिपादक है, इससे आगे का परमशुद्धनिश्चयनय ही उसका निषेधक है, परन्तु वह कभी व्यवहारनय नहीं बनता, बाकी के निश्चयनय तो व्यवहारनय भी बन जाते हैं।
यहाँ व्यवहारनय के भेद-प्रभेदों का प्रकरण है, इसलिए अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय के निषेधक परमशुद्धनिश्चयनय की चर्चा नहीं की जा रही है। निश्चयनय के भेद-प्रभेदों के प्रकरण में उसका कथन किया जा चुका है।
व्यवहारनय के ये चारों भेद आत्मा के संयोगों, संयोगीभावों तथा गुण-पर्याय के भेदों के माध्यम से आत्मा को समझाने के प्रयोजन से किये गये हैं; अतः उनका वजन भी अपने-अपने प्रयोजन की मर्यादा में समझना चाहिए। यदि उन पर आवश्यकता से अधिक बल दिया गया तो उन्हीं को परमार्थ मानने का प्रसंग आने से वे नयाभास हो जाएँगे। ऐसी स्थिति न आए, इसीलिए निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय का निषेध करना आवश्यक है।