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नय - रहस्य
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कहा भी है
जल से गले, रवि से जलता, कमल जगह छूट जाने से । मित्र अरि हो जायें जगत् में, अशुभकर्म के आने से ।। इसप्रकार अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय के कथन, उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय के कथनों से अधिक वजनदार होते हैं।
देह और कर्मों के साथ आत्मा का एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध होने पर भी वे आत्मा के द्रव्य-गुण- पर्यायों से अत्यन्त भिन्न ही हैं; इसलिए वास्तव में आत्मा, उनका कर्ता- भोक्ता नहीं है, परन्तु रागादि विकारी भाव तो आत्मा की पर्याय में ही होते हैं, अतः यह जीव रागादि भावों से ही दुःखी होता है। धनादि के प्रति तीव्र राग से पीड़ित होने पर यह जीव, शारीरिक कष्टों को सहकर भी धनप्राप्ति होने पर, आनन्दित होता है और देह के प्रति राग नष्ट हो गया होने से, देह अग्नि में जलती होने पर भी मुनिराज अतीन्द्रिय आनन्द भोगते हुए अर्हन्त अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। अतः देह की अपेक्षा राग, आत्मा के अत्यन्त निकट है। निकट क्या? आत्मा के ही प्रदेशों और पर्यायों में है, इसीलिए तो रागी, दुःखी और वीतरागी, सुखी होते हैं।
इसीप्रकार पदार्थों का ज्ञान, इन्द्रियों से नहीं, मतिज्ञानादि से होता है। आत्मा, मतिज्ञानादिरूप परिणमित होता है। उन मतिज्ञानादिक में चेतना अर्थात् जीव ही परिणमता है; अतः रागादि और मतिज्ञानादि क्षयोपशमज्ञान को आत्मा का कहनेवाला उपचरित - सद्भूतव्यवहारनय, अपने पूर्ववर्ती अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा अधिक वजनदार है।
रागादि विकार तथा क्षयोपशमज्ञान, आत्मा की अवस्थाएँ होने पर भी आत्मा का स्वभाव नहीं हैं, अपितु स्वभाव से विरुद्ध हैं, दुःखरूप हैं और विनाशीक हैं; अतः आत्मा के पूर्ण स्वभाव की द्योतक पूर्ण शुद्धपर्यायों को बतानेवाला तथा गुण-भेद से आत्मा तक पहुँचानेवाला