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________________ 166 नय-रहस्य . इसप्रकार लौकिक विश्व और अलौकिक विश्व की व्यवस्था के तुलनात्मक विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहे गये षट् द्रव्यात्मक विश्व की व्यवस्था को समझने में व्यवहारनय के इन भेद-प्रभेदों की कितनी उपयोगिता है। व्यवहारनय के चार भेदों का उत्तरोत्तर अधिक महत्त्व व्यवहारनय का स्वरूप स्पष्ट करते समय उसे अभूतार्थ/अविद्यमान कहा गया है, अतः उसके चार भेद भी निश्चयनय की अपेक्षा अभूतार्थ हैं। फिर भी प्रत्येक भेद, अपने विषय की अपेक्षा कथंचित् सत्यार्थ भी है, परन्तु सभी भेदों की सत्यार्थता एक जैसी नहीं होती। यहाँ स्थूलता से सूक्ष्मता के आधार पर जिस क्रम से उसके भेदों · का वर्णन किया गया है, उसी क्रम से उनकी सत्यार्थता भी वस्तुस्वरूप के उत्तरोत्तर अधिक निकट होती है। यहाँ किसी संस्थान के कार्यालय में कार्यरत कर्मचारियों को दिए गए अधिकारों के माध्यम से यह बात स्पष्ट की जा रही है। किसी संस्थान के कार्यरत सभी कर्मचारियों को मुख्यतया चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है - उच्च अधिकारी, सामान्य अधिकारी, लिपिक और भृत्य (चपरासी)। ये सभी कर्मचारी अपनी-अपनी अधिकार सीमा में काम करते हैं, परन्तु सभी की बातों में एक-सा वजन नहीं होता। प्रत्येक की बात का वजन, उसके अधिकारों के अनुपात में होता है तथा उससे उच्च अधिकारी के सामने वह निरस्त हो जाता है। कार्यालय के चपरासी से पूछे बिना भीतर नहीं जा सकते, अधिकारी से नहीं मिल सकते; अतः उसका भी अपना वजन है, परन्तु उसे क्लर्क की बात मानना पड़ती है। क्लर्क उसे आदेश दे सकता है, परन्तु वह क्लर्क को आदेश नहीं दे सकता। इसीप्रकार क्लर्क को 1. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ 123
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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