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नय-रहस्य की क्रिया का कर्ता नहीं है - इसप्रकार शरीरादि के कर्तृत्व का निषेध करने का अभिप्राय हो, तब 'न तथा' लक्षण निश्चयनय (अशुद्ध) का प्रयोग होता है। इसीप्रकार आत्मा को केवलज्ञानादिरूप कहकर या केवलज्ञानादि का कर्ता कहकर रागादि के कर्तापने का निषेध करने का अभिप्राय हो तो यह साक्षात्शुद्धनिश्चयनय का प्रयोग होगा। उत्तरवर्ती नय, पूर्ववर्ती नय का निषेधक होने से निषेधक लक्षण निश्चयनय लागू हो जाता है।
इसीप्रकार अभेद आत्मा में रागादि या केवलज्ञानादि का भेद उत्पन्न करके (पर्यायार्थिकनय से) आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करने का अभिप्राय हो तो व्यवहारनय का प्रयोग होगा। अभेद वस्तु का प्रतिपादन करने के लिए ही उसमें भेद किये जाते हैं, अतः प्रतिपादक लक्षण व्यवहारनय लागू होता है।
प्रश्न - अपूर्ण शुद्धपर्यायें अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप अवस्था तो निश्चय से मोक्षमार्ग कही गई हैं, फिर उन्हें उपचरितसद्भूतव्यवहारनय का विषय क्यों कहा जा रहा है?
उत्तर - जैसा कि पिछले प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि वक्ता या ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र वीतरागभावरूप होने से वास्तविक मोक्षमार्ग हैं, अतः उन्हें मोक्षमार्ग कहना, निश्चयनय का कथन है। वीतरागभाव को निश्चय मोक्षमार्ग कहकर, शुभराग और बाह्य क्रिया को मोक्षमार्ग कहने का निषेध किया जाता है।
यहाँ मोक्षमार्ग का प्रकरण नहीं है, अपितु आत्मा के स्वरूप का प्रकरण है। अभेद आत्मा में पर्यायों का भेद करना सद्भूतव्यवहार है
और अपूर्णता होने से उन्हें आत्मा का स्वरूप कहना, उपचार; अतः यहाँ संवर-निर्जरारूप अपूर्ण शुद्धपर्यायों को आत्मा कहना, उपचरितसद्भूतव्यवहारनय का कथन है।
प्रश्न - आत्मा को शुभराग का कर्ता कहना, उपचरित