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व्यवहारनय के भेद-प्रभेद
4. अनुपचरित - सद्भूतव्यवहारनय
अखण्ड अभेद वस्तु में उसके गुणों तथा पूर्ण शुद्धपर्यायों का भेद करके जानना/कहना, अनुपचरित - सद्भूतव्यवहारनय का कथन है। इसे शुद्ध- सद्भूतव्यवहारनय भी कहते हैं। इस नय से सम्बन्धित कुछ आगम वाक्य इसप्रकार हैं
(1) शुद्धगुण व शुद्धगुणी में अथवा शुद्धपर्याय व शुद्धपर्यायी में भेद का कथन करना, शुद्ध- सद्भूतव्यवहारनय है।
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- आलापपद्धति, पृष्ठ 217
(2) शुद्ध - सद्भूतव्यवहारनय से केवलज्ञानादि शुद्धगुणों का आधार होने के कारण कार्यशुद्धजीव है। नियमसार टीका, गाथा 9
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(3) शुद्ध - सद्भूतव्यवहारनय से शुद्ध स्पर्श-रस- गन्ध-वर्णों के आधारभूत पुद्गल - परमाणु के समान केवलज्ञानादि शुद्धगुणों का आधारभूत आत्मा है।
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- प्रवचनसार, जयसेनाचार्यकृत टीका का परिशिष्ट प्रश्न - मतिज्ञान तथा केवलज्ञान तो पर्याय हैं, फिर उन्हें क्रमशः विभावगुण तथा शुद्धगुण क्यों कहा गया है ?
उत्तर
दोषों का अभाव होने से मतिज्ञान / केवलज्ञान को गुण भी कहा जाता है।
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प्रश्न 'निश्चयनय के भेद - प्रभेद' प्रकरण में रागादिभावों को अशुद्धनिश्चयनय का और केवलज्ञान को साक्षात्शुद्धनिश्चयनय का विषय कहा है, परन्तु यहाँ उन्हें अशुद्ध /उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय तथा शुद्ध / अनुपचरित - सद्भूतव्यवहारनय का विषय कहा जा रहा है। क्या एक ही वस्तु या भाव अनेक नयों का विषय हो सकता है ? वास्तव में वक्ता / ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं, मात्र वाणी को नहीं । रागादिभाव, जीव के हैं या जीव, रागादि का कर्ता है - ऐसा कहकर, जीव के शरीरादि नहीं हैं या जीव, शरीरादि
उत्तर