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________________ नय - रहस्य (4) जीव के औदयिक आदि चार भाव अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय से द्रव्यकर्मों द्वारा किये गये हैं। पंचास्तिकाय, गाथा 58 की तात्पर्यवृत्ति 158 यहाँ असद्भूतव्यवहारनय के कुछ परिभाषात्मक उद्धरण मात्र दिये गए हैं। प्रथमानुयोग, चरणानुयोग एवं करणानुयोग के लगभग सभी इसी नय के आधार से किये गये हैं। हमारे लौकिक जीवन में भी. अधिकांशरूप से इसी नय का प्रयोग होता है। इस तथ्य का स्पष्टीकरण आगे यथास्थान किया जाएगा। 2 अब यहाँ सद्भूतव्यवहारनय से सम्बन्धित दोनों नयों की चर्चा क्रमशः करते हैं 3. उपचरित - सद्भूतव्यवहारनय - आत्मा में उत्पन्न होनेवाले रागादि विकारभावों तथा मतिज्ञानादि क्षायोपशमिकभावों को जीव का कहना, उपचरित - सद्भूतव्यवहारनय का प्रयोग है। इस नय को अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय भी कहा जाता है। जिनागम में उपलब्ध इस नय सम्बन्धी कुछ उद्धरण इसप्रकार हैं - (1) अशुद्धगुण व अशुद्धगुणी में तथा अशुद्धपर्याय व अशुद्धपर्यायी में भेद का कथन करना, अशुद्ध- सद्भूतव्यवहारनय है। आलापपद्धति, पृष्ठ 217 (2) अशुद्ध- सद्भूतव्यवहारनय से मतिज्ञानादि विभावगुणों का आधार होने के कारण अशुद्धजीव है। नियमसार, गाथा 9 की तात्पर्यवृत्ति (3) अशुद्ध- सद्भूतव्यवहारनय से अशुद्ध स्पर्श-रस- गन्धवर्णों के आधारभूत द्वि-अणुकादि स्कन्ध के समान मतिज्ञानादि विभावगुणों का आधारभूत आत्मा है। - प्रवचनसार, जयसेनाचार्यकृत टीका का परिशिष्ट -
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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