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व्यवहारनय के भेद-प्रभेद
बैठे
हुए देवदत्त की भाँति अथवा समवसरण में स्थित वीतरागसर्वज्ञ की भाँति विवक्षित किसी एक ग्राम या घर में स्थित है। प्रवचनसार, जयसेनाचार्यकृत टीका का परिशिष्ट
पर
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( 4 ) उपचरित - असद्भूतव्यवहारनय से यह आत्मा, पंचेन्द्रियों (4)
के इष्टानिष्ट विषयों से उत्पन्न सुख - दुःख को भोगता है।
- वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा 9 की संस्कृत व्याख्या (5) बाह्य विषयों में पंचेन्द्रिय के विषयों का परित्याग भी उपचरित - असद्भूतव्यवहारनय से है।
वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा 45 की संस्कृत व्याख्या
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2. अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय
जिनका आत्मा से एक क्षेत्रावगाह - सम्बन्ध है - ऐसे संश्लेषसहित पदार्थों अर्थात् द्रव्यकर्मों तथा शरीर से आत्मा का सम्बन्ध जाननेवाला / कहनेवाला नय, अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय है। आत्मा को मनुष्य, देव तथा स्त्री-पुरुष आदिरूप तथा कर्मों का कर्ता-भोक्ता आदि इसी नय से कहा जाता है। इस नय के कुछ शास्त्रीय उद्धरण इसप्रकार हैं
(1) आत्मा निकटवर्ती अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय से कर्मों का कर्ता और उसके फलस्वरूप सुख-दुःख का भोक्ता है। अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय से नोकर्म अर्थात् शरीर का भी कर्ता है। - नियमसार, गाथा 18 की तात्पर्यवृत्ति
द्रव्य
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(2) अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय से यह जीव मूर्त है। वृहद्द्रव्यसंग्रह, गाथा 7 की संस्कृत व्याख्या (3) अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय से जीव यथासम्भव
द्रव्यप्राणों द्वारा जीता है, जीवेगा और पहले जीता था।
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पंचास्तिकाय, गाथा 27 की तात्पर्यवृत्ति