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व्यवहारनय के भेद-प्रभेद इसप्रकार इस नय को असद्भूतव्यवहारनय कहना उचित है। इसीप्रकार एक अखण्ड वस्तु में उसके गुण-पर्याय, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव तथा धर्मों आदि के भेद करके उसे समझाया जाता है। ये धर्म, वस्तु में विद्यमान हैं अर्थात् सद्भूत हैं और अभेद में भेद उत्पन्न करना व्यवहार है तथा भेदरूप अंश को श्रुतज्ञान के अंश नय द्वारा जाना गया है, अतः उसका सद्भूतव्यवहारनय नाम उचित है।
आलापपद्धति, पृष्ठ 227 पर सद्भूत और असद्भूत व्यवहारनय की विषय-वस्तु इसप्रकार स्पष्ट की गई है -
गुण-गुणी में, पर्याय-पर्यायी में, स्वभाव-स्वभाववान में और कारक-कारकवान् में भेद करना अर्थात् वस्तुतः जो अभिन्न हैं, उनमें भेद-व्यवहार करना, सद्भूतव्यवहारनय का अर्थ (विषय) है। एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का उपचार, एक पर्याय में दूसरी पर्याय का उपचार, एक गुण में दूसरे गुण का उपचार, द्रव्य में गुण का उपचार, द्रव्य में पर्याय का उपचार; गुण में द्रव्य का उपचार, गुण में पर्याय का उपचार, पर्याय में द्रव्य का उपचार
और पर्याय में गुण का उपचार - इसप्रकार नौ प्रकार का असद्भूतव्यवहारनय का अर्थ जानना चाहिए। .
असद्भूत और सद्भूत दोनों ही व्यवहार के उपचरित और अनुपचरित दो-दो भेद कहे गए हैं। इसप्रकार व्यवहारनय के चार भेद माने जाते हैं।
__ स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर - इस नियम को ध्यान में रखकर इन भेदों को निम्नलिखित क्रमानुसार समझना चाहिए -
1. उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय 2. अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय