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________________ 9 व्यवहारनय के भेद - प्रभेद निश्चयनय के समान व्यवहारनय के भी मुख्यतः दो भेद कहे गए हैं। हमें अपने लौकिक जीवन में भी अपने से अत्यन्त भिन्न वस्तुओं से सम्बन्ध स्थापित करना ही पड़ता है तथा अभेद वस्तु में भी भेद करके ही उसे समझना - समझाना पड़ता है। इसी आधार पर जिनागम में व्यवहारनय के मुख्य दो भेद कहे गए हैं- असद्भूतव्यवहारनय और सद्भूतव्यवहारनय। समयसार, गाथा 27 में जीव और देह दोनों को एक कहना व्यवहार कहा गया है तथा गाथा 7 में आत्मा में ज्ञान - दर्शन - चारित्र हैं - ऐसा कहना व्यवहार कहा गया है। इसी आधार पर व्यवहारनय के उक्त दो भेद कहे गए हैं। - आलापपद्धति में भिन्न-भिन्न वस्तुओं में सम्बन्ध स्थापित करने को असद्भूतव्यवहारनय तथा एक ही वस्तु में भेद करने को सद्भूतव्यवहारनय कहा गया है। उक्त दोनों नाम उचित और सार्थक हैं, क्योंकि दो वस्तुओं में वास्तव में कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी प्रयोजनवश उनमें सम्बन्ध स्थापित करना, असद्भूत अर्थात् अविद्यमान ही तो हुआ । भिन्न वस्तु में सम्बन्ध स्थापित करना, व्यवहार है और संयोग का ज्ञान करानेवाले सम्यक् श्रुतज्ञान का अंश होने से उसे नय कहा है।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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