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________________ 152 नय-रहस्य उसका कर्म है, यही उसका धर्म है, इसी में सच्चा सुख है। . पर्याय, द्रव्य से सर्वथा भिन्न कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है। द्रव्य का ही अंश है, अंग है। परिणमन करना भी द्रव्य का ही स्वभाव है; अतः श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के द्वारा यह जीव, पर या स्व का अवलम्बन करता हुआ दुःखी या सुखी होता है। पर्याय, द्रव्य का अवलम्बन करती है - यह भेद का कथन है; अभेद विवक्षा में तो आत्मा ही ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय अथवा ध्यान-ध्याता-ध्येय वह स्वयं ही है। हम यह भी कह सकते हैं कि आँखें देखती हैं और यह भी कह सकते हैं कि व्यक्ति आँखों से देखता है; अतः द्रव्य पर्याय के भेदअभेद की यथार्थ विवक्षा समझकर, पर से लक्ष्य हटाकर, निजपरमात्मद्रव्य का अवलम्बन करना ही सुखी होने का उपाय है। प्रश्न-14 - सारा काम पर्याय को ही करना है, पर्याय में पर्याय से पर्याय के लिए ही करना है। अपने में ही द्रव्य को ही देखना है तो फिर परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत त्रिकाली द्रव्य का मोक्षमार्ग या मोक्ष में क्या योगदान है? उत्तर - अरे भाई! सारा काम पर्याय में होना है, परन्तु होगा कैसे? द्रव्य के सन्मुख होकर उसमें अहंपना करने से न! पर्याय, द्रव्य का लक्ष्य किये बिना अपने में द्रव्य को कैसे देखेगी? अतः निष्क्रिय द्रव्य का त्रिकाल विद्यमान रहना - यही उसका योगदान है। महान् लोगों की उपस्थिति मात्र से सब काम हो जाते हैं। यदि द्रव्य की सत्ता ही न हो तो पर्याय अपना अहं किसमें करेगी? अपने को द्रव्यरूप कैसे देखेगी? अतः मोक्षमार्ग में द्रव्य और पर्याय, दोनों का अपने-अपने स्वभाव के अनुसार योगदान है। प्रश्न 15 - आपने कहा कि आत्मा स्वयं ध्यान है, स्वयं ध्येय है तो क्या मोक्ष हमारा ध्येय नहीं है?
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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