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निश्चयनय के भेद-प्रभेद
151 किया जाता है। अहंपना और लीनता (श्रद्धा और चारित्र) का यही स्वरूप है। श्रद्धा की पर्याय द्वारा स्वयं को अखण्ड द्रव्यरूप अनुभव करने पर भी निश्चयाभास नहीं होता, क्योंकि अनुभूति के काल में भी ज्ञान, द्रव्य और पर्याय दोनों को यथार्थ जानता है। - किसी दरिद्र व्यक्ति की सुन्दर कन्या पर एक सम्राट् मोहित हो गया और सम्राट् पर भरोसा करके उस कन्या ने सम्राट् का वरण कर लिया। अब वह कन्या यदि स्वयं को दरिद्र और उसकी दासी माने तो वरण कहाँ हुआ, उसमें सर्वस्व समर्पण कहाँ हुआ? समर्पण तो तब कहा जाएगा, जब वह स्वयं को उसमें एकाकाररूप अनुभव करे, स्वयं को सम्राज्ञी अनुभव करे - ऐसा कहना भी अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय का कथन है, क्योंकि इस कथन में भी ध्यान-ध्येय का भेद पड़ रहा है। वस्तुतः अपने में और द्रव्य में भेद न देखना, द्रव्य में अहं करते हुए अपने को द्रव्यरूप ही देखना, अनुभव करना - यही श्रद्धा या अनुभूति का स्वरूप है।
___ पर्याय, पर्याय का लक्ष्य करती हुई, अपने को ध्रुव या पूर्ण माने * तो निश्चयाभास होगा, परन्तु ज्ञान-पर्याय को पर्याय का यथार्थज्ञान होने
पर भी श्रद्धा ने अपना अहं, द्रव्य में विसर्जित किया है, समर्पित किया है। अब द्रव्य ही उसका स्व है, उसकी अनुभूति में द्रव्य ही बसता है, वह स्वयं नहीं। यही द्रव्यदृष्टि है, स्वभाव-दृष्टि है, भूतार्थ का आश्रय है।
वस्तु, द्रव्य-पर्यायात्मक है। द्रव्य, पर में कुछ कर सकता नहीं और उसमें कुछ करने की गुंजाइश नहीं, वह तो स्वयं परिपूर्ण निष्क्रिय ध्रुव तत्त्व है; अतः करने का काम पर्याय का पर्याय में ही रहा। पर्याय भी पर में कुछ कर सकती नहीं और वह द्रव्य का ही अंश होने से द्रव्य ही उसका पारमार्थिक स्वरूप है, अतः जैसा उसका वास्तविक स्वरूप है, उसे जानकर वैसी प्रतीति करना और उसमें एकाग्र होना, यही