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निश्चयनय के भेद - प्रभेद
होते हैं; अतः उन्हें पौद्गलिक कहकर उनसे भिन्न शुद्ध चैतन्य स्वभाव का अवलम्बन कराने का प्रयोजन है; जबकि सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र, रागादि की भाँति अचेतन नहीं हैं, वे आत्मा के अवलम्बनरूप अवस्थाएँ हैं, अतः उनमें आत्मा ही उछलता है । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में इन्हें आत्मरूपं तत् अर्थात् आत्मा का स्वरूप कहा है। अतः 'दृष्टि-प्रधान ज्ञान' की कथन शैली में रागादि को आत्मा की सीमा से बाहर रखा है और निर्मल पर्याय को आत्मा का ही परिणाम कहा है।
2. यद्यपि वर्तमान में केवलज्ञानादि पूर्ण शुद्धपर्यायें प्रगट नहीं हैं, तथापि जब तक इनकी महिमा भासित होगी, तब तक दृष्टि अपने अनादि - अनन्त शाश्वत ध्रुव स्वभाव का अवलम्बन नहीं कर सकेगी; अतः निर्मल पर्यायें प्रगट करने के लिए उनसे भी दृष्टि हटाकर, परिणाम परिणम गया और मैं यूँ का यूँ रह गया इसप्रकार अपरिणामी ज्ञायकस्वभाव को मुख्य करके, आत्मा को औदयिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक तथा क्षायिक भाव से भिन्न एक पारिणामिकभाव स्वरूप कहा गया है। नियमसार की 50वीं गाथा में इन चार भावों को परद्रव्य और परस्वभाव कहकर हेय कहा गया है। इसप्रकार इन्हें सीधे पुद्गल न कहते हुए भी परद्रव्य कहकर आत्मा को इनसे भिन्न कहा गया है। यह अध्यात्म की पराकाष्ठा को प्राप्त वचन है।
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3. परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत परमपारिणामिकभाव का विशेष स्पष्टीकरण, श्रीमद् जयसेनाचार्यदेव ने समयसार की मोक्ष अधिकार की चूलिका में (गाथा 320 की टीका के पश्चात् ) किया है। पूज्य गुरुदेवश्री को यह टीका अत्यन्त प्रिय रही, जिस पर उन्होंने स्वतन्त्र प्रवचन भी किये हैं। इस टीका में समागत निम्नलिखित बिन्दु विशेष ध्यान देने योग्य हैं
(अ) शुद्धपारिणामिकभाव, बन्ध के कारणभूत रागादि क्रिया से