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निश्चयनय के भेद-प्रभेद त्रिकाली, ध्रुव, भगवान-आत्मा को प्रतिष्ठित करता है।
इसप्रकार परमशुद्धनिश्चयनय से शुद्धजीवतत्त्व की सिद्धि होती है। .. अशुद्धनिश्चयनय रागादि विकारी पर्यायों को आत्मा के स्वीकार करता है, परन्तु एकदेशशुद्धनिश्चयनय, उन्हें जीव का स्वीकार न करके, कर्मोदय के निमित्त की अपेक्षा, पुद्गल का कह देता है; अतः रागादि भाव शुद्धजीवतत्त्व में तो हैं ही नहीं, परन्तु वे पुद्गलद्रव्य में भी उत्पन्न नहीं होते, अतः उन्हें जीव और अजीव, दोनों तत्त्वों से पृथक् पुण्यपाप एवं आस्रव-बन्धतत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है।
इसप्रकार अशुद्धनिश्चयनय से आम्रव-बन्ध तथा पुण्य-पापतत्त्व की सिद्धि होती है, जिन्हें अशुद्धनिश्चयनय से जीव का और एकदेशशुद्धनिश्चयनय से पुद्गल का कहा जाता है।
अपूर्ण और पूर्ण शुद्धपर्यायें भी शुद्धजीवतत्त्व में शामिल नहीं हैं; अतः इन्हें संवर, निर्जरा और मोक्षतत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है।
द्रव्यासव-बन्ध-पुण्य-पाप-संवर-निर्जरा-मोक्षतत्त्व, यद्यपि पुद्गल की पर्यायें हैं; उनमें भावास्रव-बन्ध-पुण्य-पाप-संवर-निर्जरा-मोक्षरूप जीव की अशुद्ध-शुद्धपर्यायें निमित्त हैं। इसीप्रकार भावास्रव-बन्धपुण्य-पाप-संवर-निर्जरातत्त्व जीव की पर्यायें हैं, उनमें द्रव्यास्रवबन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षरूप पुद्गल की पर्यायें निमित्त हैं; इसलिए जीव की भावास्रव-संवरादि पर्यायों तथा पुद्गलकर्म की द्रव्यास्रवसंवरादि पर्यायों का एक समूह बनाकर, पर्यायरूप आस्रवादि व संवरादि तत्त्वों को जीव-अजीवतत्त्व से भिन्न कहा गया है। .. इसप्रकार नौ तत्त्वों का स्वरूप समझने पर, नौ तत्त्वों में छिपी हुई, परन्तु नौ तत्त्वों से भिन्न आत्म-ज्योति के अनुभवरूप मोक्षमार्ग की