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________________ नय - रहस्य आत्मानुभूति होने की प्रक्रिया उत्तरोत्तर निषेध की प्रक्रिया है। प्रत्येक नय, अपने विषय का ज्ञान कराने के लिए अनिषेध्य ( स्वीकार्य ) है, परन्तु वहाँ से दृष्टि हटाकर त्रिकाली ज्ञायक तक ले जाने के लिए निषेध्य है, क्योंकि अपने विषय का ज्ञान कराने के बाद उस नय की उपयोगिता समाप्त हो जाती है; अतः उसका निषेध न करें तो वहीं खड़े रह जाएँगे और उत्तरोत्तर विकास की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाएगी। 146 अतः निश्चयनय के भेद-प्रभेद कथंचित् निषेध्य हैं और कथंचित् स्वीकार्य हैं - यह स्याद्वाद ही शरणभूत है । यदि इनका कथंचित् निषेध भी न किया जाए तो वे ही आपत्तियाँ खड़ी हो जाएँगी, जो सर्वथा निषेध करने से होती हैं। कथंचित् निषेध भी न किया जाए तो पर और पर्यायों से दृष्टि हटाकर स्वभाव - सन्मुख होने का अवकाश न रहेगा, परन्तु सर्वथा निषेध करने से भी शुद्धाशुद्धपर्यायों तथा उनसे तन्मय द्रव्य का निषेध होने की आपत्ति आती है, जिससे अनादिकालीन मिथ्यात्व जीवन्त रहेगा तथा सात तत्त्वों की सिद्धि भी न हो सकेगी। उत्तर प्रश्न 10 निश्चयनय के भेदों का सर्वथा निषेध करने से सात तत्त्वों की सिद्धि नहीं होगी इस तथ्य को जरा विस्तार से समझाएँ ? समयसार, गाथा 3 की टीका में स्पष्ट किया गया है कि एक द्रव्य, दूसरे का स्पर्श भी नहीं करता और कभी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होता; इसलिए प्रत्येक द्रव्य, परद्रव्यों तथा उनके गुण-पर्यायों से अत्यन्त भिन्न तथा अपने गुण- पर्यायों से अभिन्न है। यही वस्तु का पारमार्थिक स्वरूप है, यही भूतार्थ है। परद्रव्यों के साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध कहना व्यवहार है, जो कि अभूतार्थ है । - 1 आगमकथित उक्त महासत्य की नींव पर परमागम अर्थात् अध्यात्म का महल खड़ा होता है और उसमें निश्चयनय के विषयभूत अभेद द्रव्य की सीमा से पर्यायों और गुणभेदों को बाहर करके, अभेद, अखण्ड,
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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